Friday, January 26, 2018

समाधि-संयम पूर्वक गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरण पूर्णता का अनुसंधान



श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी व राकेश भैया जी के बीच हुए इस संवाद का अधिकतर भाग इस पोस्ट में प्राप्त हुआ। इसे भी वीडियो देखने के बाद पढ़ने से बाबा जी क्या कह रहे हैं इसे समझने में मदद मिलेगी।  
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*संयम काल में अध्ययन*
प्रश्न: समाधि के बाद संयम में आपने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया?

उत्तर: आपको मुझसे यह सूचना के रूप में बात मिली है कि मैं साधना, समाधि, संयम विधि से मध्यस्थ-दर्शन की पूरी बात को पाया हूँ। उससे आप यह कह रहे हैं - संयम काल में मैंने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया, जिसका परम्परा में कोई जिक्र नहीं था। आपका यह जिज्ञासा पूरा होना चाहिए - यह मेरा शुभ-कामना है।

मेरे पास पहले से यह कोई विचार नहीं था कि मैं यह अध्ययन करूंगा। पहला मुद्दा यह है। संयम करने से पहले मेरे पास अध्ययन का कोई syllabus नहीं था। उससे पहले समाधि में मैंने अपने आशा, विचार, और इच्छा को चुप होते देखा था। ऐसे स्थिति में - दिन में १२-१८ घंटे तक मैं ज्ञान होने का इन्तेज़ार में रहता था। समाधि में ज्ञान हुआ नहीं। अब क्या किया जाए? समाधि में ज्ञान नहीं होता - इसका अपने साथी, सहयोगी, और मित्रों को message देना है। पतंजलि योग-सूत्र में लिखा है - यदि संयम सफल होता है, तो समाधि होने की गवाही हो जाती है। उसके आधार पर संयम करने के लिए मैंने अपने मन को तैयार किया।

संयम के बारे में शास्त्रों में जो लिखा था - वह सिद्धि मात्र को प्राप्त करने के लिए है, ऐसी मेरी स्वीकृति हुई। सिद्धियाँ तो संसार को बुद्धू बनाने वालों को चाहिए। मुझे सिद्धि नहीं चाहिए - यह मैंने स्वीकारा। शास्त्रों में लिखा था - धारणा , ध्यान, और समाधि इन तीनो को जब हम इस क्रम में एकत्र करते हैं तो संयम होता है। मुझ में यह अन्तः-प्रेरणा हुई कि इस formula को उलटाया जाए। वैसा करने से शायद कुछ निकले - जो इससे भिन्न होगा। क्या भिन्न होगा - वही उसकी गवाही होगी। इस तरह मैंने समाधि, ध्यान, धारणा - इस क्रम में इन स्थितियों को एकत्र करने का निर्णय किया। स्वयं पर विश्वास और दृढ़ता करने की प्रवृत्ति मुझ में पहले से ही थी।

मैं पहले धारणा, ध्यान, और समाधि की भूमियों से गुजरा ही था - इसलिए इन स्थितयों को एकत्र करने में मुझको कोई मुश्किल नहीं हुई। न ही इसमें कोई ज्यादा समय लगा। इस तरह मैं अपने चित्त और वृत्ति को लगाने में तत्पर हुआ। कुछ चार महीने के बाद - मैं बहुत सारी ध्वनियां सुनने लगा - कई ऐसी ध्वनियां जो मैं पहले सुना नहीं था। मैंने सोचा - मुझे कर्ण-नाद तो नहीं हो गया है? लेकिन संयम के समय के बाद ऐसी कोई ध्वनियां होती नहीं रही। यह क्या है? - यह आगे पता चलेगा, यह सोच कर आगे चले। कुछ समय के बाद वे ध्वनियां शांत हो गयी। शांत हो गया - एक दम। शांत होने के स्थिति में वैसा ही था - जैसे गहरे पानी में डूबने पर आँखे खोलने पर सूरज, पानी, और आंखों के बीच जैसा दिखता है - वैसी ही स्थिति में मैं संयम में स्थित हो गया।

फ़िर धीरे-धीरे प्रकृति अपने आप उभड-उभड कर सामने आने लगी। धरती अपने स्वरुप में आयी। वनस्पतियाँ अपने स्वरुप में आयी। जीव संसार अपने स्वरुप में आया। मनुष्य संसार अपने स्वरुप में आया। ऐसा होने लगा। पहले धरती आयी। फ़िर ऐसी अनंत धरतियां। यह कोई महीने भर चला होगा। जैसे सिनेमा में देखते हैं - वैसे मुझको संसार दीखता रहा। इसके आगे चलने पर - एक चट्टान - फ़िर उसके detail में जाने पर, जैसे चूना पिघलता है, वह पिघला। और पिघल कर के फैला - और फ़ैल करके फैलते-फैलते उस जगह में आ गया, जहाँ वह हर भाग स्वचालित स्थिति में था। ऐसा मैंने परमाणु को देखा, पता लगाया।

इस तरह से कई चीजें पिघल पिघल कर मूल रूप में परमाणु के रूप में होने को मैंने देखा है। कुछ वस्तुओं के नाम मैं जानता हूँ, कुछ के नाम भी मैं नहीं जानता। ऐसे चीजों को पिघल कर स्वचालित स्वरुप में detail में मैं पहचाना। "यही परमाणु है।" - यह मैंने cognate किया। इस परमाणु को चलाने वाला कोई नहीं है - यह पहचाना। अनेक प्रजाति के परमाणुओं को व्यापक वस्तु में डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरे हुए स्वरुप में देखा।
उसके बाद प्राण-कोशा के स्वरुप में देखा। प्राण-कोशा के मूल रूप में यौगिक क्रिया के स्वरुप में अपने सम्मुख में आते हुए चित्र के रूप में देखता रहा। इसमें मुझे बहुत खुश-हाली होती रही। इस तरह हर वस्तु का detail में अध्ययन होता है, इसके अलावा पढने को चाहिए ही क्या? यही पढने की वस्तु रही। ऐसा पढ़ते-पढ़ते मनुष्य आ गया। मनुष्य में प्राण-कोशा से रचित शरीर। प्राण-कोशा पहले स्पष्ट हुए - प्राण-कोशा कैसे बनते हैं। प्राण-कोशा के मूल में प्राण-सूत्र, प्राण-सूत्र के मूल में पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व। पुष्टि-तत्व को आप लोग protein कहते हो। रचना-तत्व को आप लोग harmone कहते हो। आप लोग वह भाषा जानते हैं - उस वस्तु को जानते नहीं हैं। वस्तु को मैं जानता हूँ। आप पुष्टि-तत्व को जानते नहीं हैं - पुष्टि-तत्व का नाम जानते हैं। वह पुष्टि-तत्व वस्तु के रूप में क्या है - वह आप नहीं जानते - उसको मैं जानता हूँ। उसी प्रकार प्राण-कोशा और प्राण-सूत्रों से रचना। प्राण-सूत्रों का नाम आप जानते हैं - वह प्राण-सूत्र किस वस्तु से कैसे बना है, उसको मैं देखा हूँ। रचना-तत्व और पुष्टि-तत्व निश्चित अनुपात में एक दूसरे से जुड़ जाते हैं - वैसे ही जैसे दो परमाणु-अंश एक दूसरे को पहचान करके साथ हो जाते हैं। जुड़ते हुए देखा है मैंने! जुड़ करके प्राण-सूत्र होते हुए देखा है! प्राण-सूत्र बन कर जल में निमग्न रहता हुआ देखा है। रसायन-जल में निमग्न रहते हुए - उनमें श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया की शुरुआत होते हुए देखा है! इससे ज्यादा क्या detail में देखना है? देखना है? मुझको पहले से यह सब देखने की इच्छा थी - ऐसा कुछ नहीं था। अपने आप से यह सब देखने को मिला।

प्राण-सूत्रों में जब श्वसन और प्रश्वसन की प्रक्रिया शुरू होती थी - तो उनमें एक खुशहाली दिखाई देती थी। उस खुश-हाली के साथ उनमें एक रचना विधि उभर के आ जाती थी। उस रचना में वे संलग्न हो जाते थे। उसके बाद बीज-वृक्ष न्याय विधि से उनकी परम्परा बनी। उसकी खुश-हाली से दूसरी रचना-विधि निकली। दूसरी रचना किए। वह फ़िर परम्परा हुआ - बीज वृक्ष विधि से। इस ढंग से अनेक रचनाएँ प्राण-सूत्रों से हुई।

रसायन तत्वों के मूल में गए - तो उनके मूल में है "जल"। किसी भी धरती पर पहला यौगिक वस्तु जल ही है। जल धरती पर ही टिकता है। घरती से मिल कर जल अम्ल और क्षार ग्रहण कर लेता है। किसी निश्चित अनुपात में अम्ल और क्षार मिल कर पुष्टि-तत्व होता है। किसी निश्चित अनुपात में मिल कर वे रचना-तत्व होते हैं। इसको देखा। इस तरह प्राण-सूत्रों का बनना देखा। प्राण-सूत्रों से रचनाएँ होते देखा।

संयम काल में कुछ कुछ जगह पर मैंने संस्कृत लिपि में लिखा हुआ भी देखा। यह सब बात देखने पर मुझे विशवास हुआ - यह संयम तो पढने की चीज है! इसको आगे बढाए - चारों अवस्थाएं जब स्पष्ट हो गयी, यह फ़िर दोहराने लगा।

पहले एक वर्ष मैं इन्तेज़ार ही करता रहा। फ़िर २-३ महीने ध्वनियों की बात रही, उसके बाद समाधि के आकार में आने में कुछ समय लगा, उसके बाद ध्यान की जगह में मैं जैसे ही पहुँचा - यह सब "तांडव" होने लगा! पूरा जड़ और चैतन्य प्रकृति व्यापक वस्तु में अपने आप को किस तरह से निरंतर पाया है। दूसरे - योग संयोग कैसे प्रकट हुआ है।

एक दिन मैं संयम में देखता हूँ - परमाणुएं अपने आप एक लाइन में लग गए। एक, दो, तीन, चार, उन्हें मैं गिन सकता था। कुछ संख्या के बाद परमाणुओं का अजीर्ण होना मिला। जो परमाणु अपने में से कुछ परमाणु-अंशों को बहिर्गत करना चाह रहे हैं - उनको मैंने अजीर्ण नाम दिया। उससे पहले कुछ परमाणुओं को भूखे परमाणुओं के रूप में देखा। वे परमाणु अपने में कुछ और परमाणु-अंशों को समा लेना चाह रहे हैं। इन दोनों तरह के परमाणुओं के मध्य में मैं एक ऐसे परमाणु को भी देखा - जो अपने एक आकार में घूम रहा है। जबकि बाकी सब परमाणु अपनी जगह में बैठे हैं। जब उस परमाणु को एक जगह में स्थिर होते हुए देखा - तब पता लगा इसकी गठन-तृप्ति हो गयी है। इस तृप्त परमाणु को गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया।

प्रश्न: क्या आपने संक्रमण होते हुए भी देखा?

नहीं। संक्रमण की कोई अवधि नहीं होती - इसलिए वह नहीं देखा। समय विहीनता का दर्शन नहीं होता। समय-विहीनता का मात्र अनुभव होता है। कतार में भूखे, अजीर्ण, और तृप्त परमाणु हैं - उनको देखा। लेकिन संक्रमण होते हुए नहीं देखा। संक्रमण हो गया है - यह अपना capacity लगता ही है, interpret करने में। वैसे ही - जैसे किसी क्रिया को नाम देने में हमारा capacity लगता है। तृप्त परमाणु अपने गठन में पूर्ण हो गया - तभी यह अपने आकार को बनाए रखा। गठन-पूर्ण परमाणु अनु-बंधन और भार-बंधन दोनों से मुक्त हो गया - और आशा-बंधन से युक्त हो गया। आशा-बंधन के आधार पर यह अपना पुंज-आकार बनाया। उस आकार की शरीर-रचना सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि से उपलब्ध रही - जिसको चलाने के लिए प्रवृत्ति।
जीवन-परमाणु को पहले मैंने पुन्जाकर स्वरुप में देखा। उसके बाद धीरे-धीरे वह परमाणु के रूप में सम्मुख हुआ। उसमें मैंने देखा - मध्य में एक ही अंश है। यह देखने के लिए परमाणु कितना magnify हुआ होगा - यह मैं नहीं कह सकता। पर मैं परमाणु-अंशों को गिन सकता था। हर बात को मैं समझ सकता था। मध्य में एक अंश, पहले परिवेश में २, दूसरे में ८, फ़िर १८, फ़िर ३२ - इस तरह ६१ परमाणु-अंशों को मैंने जीवन-परमाणु में देखा।
इन ६१ परमाणु-अंशों में परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों हैं। परावर्तन में प्रकाशन करना बनता है। प्रत्यावर्तन में स्वीकार करना बनता है। इस तरह जीवन में ६१ परावर्तन और ६१ ही प्रत्यावर्तन में क्रियाएं हैं। इन कुल १२२ क्रियाओं को मैंने मानव-संचेत्नावादी मनोविज्ञान में स्पष्ट किया है। संयम काल में जीवन की क्रियाओं को गिनने का काम मैंने किया।

प्रश्न: इस सब में कितना समय लगा?

संयम काल में अध्ययन करने में मुझे ५ वर्ष लगे। जब तक मैंने यह नहीं माना कि मेरा अध्ययन पूरा हो गया है - इस दृश्य की पुनरावृत्ति होती रही। इससे मैंने माना कि नियति स्वयं प्रकटनशील है। इसमें कोई रहस्य नहीं है। अस्तित्व कोई रहस्य नहीं है - मैं यहाँ आ गया। यह स्वयं में विश्वास होने पर कि मेरा अध्ययन पूरा हुआ - फ़िर पहले जैसे ही अनेक धरतियां, जलता हुआ सूरज जैसा प्रतिबिंबित होता रहा। कई धरतियों को मैं देखते रहा। इन धरतियों में से कई में चारों अवस्थाओं को स्थापित भी देखा। स्थूल से स्थूल और सूक्ष्म से सूक्ष्म सब कुछ देखने के पर मैंने निर्णय किया - यही अस्तित्व है। यही व्यापक में संपृक्त प्रकृति है। इस बात में जब मुझको पूरा विश्वास हुआ - उसके बाद मैंने संयम को बंद किया।

प्रश्न: आपको जैसा अस्तित्व अध्ययन हुआ - क्या हमको भी वैसा ही अध्ययन होगा?

भाषा से वांग्मय के रूप में जो मैंने प्रस्तुत किया है - उसके अर्थ में जाओगे तो आपको वही मिलेगा। आपके पास उसके लिए agency है - कल्पनाशीलता। कल्पनाशीलता आपके पास agency है - अर्थ तक पहुँचने के लिए। अर्थ अस्तित्व में है। भाषा से जो मैंने कहा है - उसका अर्थ अस्तित्व में है।

मुझे यह पता लगा - मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है। जागृति जीवन द्वारा दसों क्रियाएं व्यक्त करने के रूप में हैं। १० क्रियाओं के detail में १२२ आचरण हैं - ६१ परावर्तन में, ६१ प्रत्यावर्तन में। इनको गिनने के बाद मुझको तृप्ति हुई कि संयम जो मैंने किया था, वह सार्थक हुआ। संयम सार्थक होने के बाद प्रयास ख़त्म हो गया।

इससे यह निकल गया - (१) भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है। (२) अस्तित्व में परिवर्तन है - उत्पत्ति नहीं है।

तृप्त परमाणु को मैंने पुंज-आकार में होता हुआ देखा। कभी घोडे, कभी गधे, कभी बकरी, तो कभी मानव के आकार में। कई प्रकार से यह दीखता रहा - यह महीनो तक चला। उसके बाद पुन्जाकार के मूल में परमाणु अपने में स्थिर हुआ - वह भी बाकी भूखे और अजीर्ण परमाणुओं की कतार में जैसे देखा था, वैसे ही एक परमाणु ही है। उसमें चार परिवेश और एक मध्य में अंश देखा। यह मुझ को समझ में आ गया : यह एक विशेष परमाणु है - जिसमें तृप्ति है। जब उसकी पूरी क्रियाएं मेरी गिनती में आ गयी - यह पता लगा उसमें परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों है। जब ६१ प्रकार के परावर्तन और प्रत्यावर्तन का अध्ययन मेरा पूरा हो गया तो मैंने माना मेरा जीवन का अध्ययन पूरा हो गया।

विगत में कहा था - ब्रह्म से जीव-जगत पैदा हुआ। जीव के ह्रदय में ब्रह्म बैठा हुआ है - यह लिखा था। यह सब झूठ निकल गया। इसके विपरीत मैंने पाया - जीवन एक गठंपूर्ण परमाणु है, जो शरीर को चलाता है। मनुष्य शरीर के साथ एक विशेषता देखी - जीवन की कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को इसके साथ दूर दूर तक फैलता देखा। यहाँ तक मैंने देख लिया।

समाधि से बाहर निकलने पर मैं जीवन से सम्बंधित बात को मैं अपने में अध्ययन करता ही रहा। होते-होते पता चला - जीवन ही भ्रम-वश बंधन में पीड़ित होता है। जीवन ही जागृत हो कर बंधन से मुक्त हो जाता है। भ्रमित होने से बंधन। भ्रम-मुक्त होने से जागृति। भ्रम अति-व्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोष है। फ़िर भाषा से तो मेरे पास पहले से थोड़ा था ही - उसके साथ परिभाषा के साथ मैं समृद्ध हुआ। धीरे धीरे इस बात को मैं दूसरों को बताने में सफल हुआ।
प्रश्न: व्यापक वस्तु के पारगामी और पारदर्शी होने का आपने कैसे अनुभव किया?

जड़ और चैतन्य व्यापक वस्तु से घिरा है - यह मैंने देखा। डूबा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ से पारगामियता स्पष्ट हुई। डूबा हुआ है - यह क्रियाशीलता के रूप में पहचाना। एक दूसरे का परस्परता में प्रतिबिम्बन है - इससे पारदर्शिता समझ में आ गयी। प्रतिबिम्बन विधि से ही इकाइयों की परस्परता में पहचान है। ४-५ वर्ष में यह बात कितनी ही बार दोहराया होगा - जब तक मैं तृप्त नहीं हो गया, तब तक यह repetition होता रहा। जो मैं साधना किया था - वही इस बात को बनाए रखा ऐसा मैं मानता हूँ।

इस तरह - समाधि होता है, संयम होता है - ये बात attest हुई। योग, आगम तंत्र उपासना विधि से जो समाधि की तरफ़ जो इशारा किया है, वह ग़लत नहीं है। समाधि में ज्ञान होता है, जो लिखा - वह ग़लत है!

सम्पूर्ण अस्तित्व क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

जीवन क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

मानवीयता पूर्ण आचरण क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

प्रश्न: क्या संयम काल में आपकी कोई पूर्व स्मृतियाँ भी कार्य-रत थी?

उत्तर: नहीं। समाधि में उनका निरोध हुआ, उसके बाद ध्यान, उसके बाद धारणा। इस तरह संयम काल में मेरी कोई पूर्व-स्मृतियाँ कार्य रत नहीं थी।

प्रश्न: अस्तित्व कैसा है?

उत्तर: अस्तित्व सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में है। जड़ प्रकृति रसायन-प्रक्रिया द्वारा बाकी तीनो अवस्थाओं को प्रकटित करता है। मूलतः पदार्थ-अवस्था से ही सारा रचना है। वही पदार्थ-अवस्था से ही परमाणु में विकास। पदार्थ-अवस्था ही है परमाणु। पदार्थ-अवस्था के परमाणु ही विकास-क्रम में भूखे और अजीर्ण - और विकसित अवस्था में उनको तृप्त या गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया है।

प्रश्न: शरीर में जीवन कैसे काम करता है?

उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को चलाने के लिए मेधस-तंत्र समृद्ध होने की ज़रूरत है। मेधस-तंत्र समृद्ध हुए बिना जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाना बनता नहीं है। शरीर और जीवन के बीच मेधस-तंत्र एक battery है। जीवन पहले इस battery को चार्ज करता है। मेधस तंत्र को प्रभावित करने से पूरा मेधस-तंत्र चार्ज हो जाता है। तो शरीर जीवंत दीखता है। शरीर एक प्राण-कोशाओं से बना ताना-बाना है। हर प्राण-कोषा सत्ता में भीगा है। दो प्राण-कोशों के बीच की रिक्त-स्थली में से जीवन travel करता रहता है। गर्भावस्था में horizontal विधि से travel करता है, और उस तरह शिशु को जीवंत बनाता है। शिशु के बाहर आने पर जीवन horizontal और vertical दोनों विधियों से घूमता है। दोनों विधियों से संचार को स्थापित करके प्राण-कोशाओं के बीच के रंध्रों में से घूमता रहता है। उसकी स्पीड की कोई गणना नहीं की जा सकती। अक्षय-गति के रूप में यह पुन्जाकार है। उसकी गति के आगे संख्या defeat हो जाती है। किसी भी विधि से जीवन की स्पीड का संख्याकरण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न: अस्तित्व क्यों है? अस्तित्व का प्रयोजन क्या है?

उत्तर: अस्तित्व का लक्ष्य है - सह-अस्तित्व में मानव द्वारा ज्ञान-अवस्था में प्रमाणित होना। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व है। दूसरे शब्दों में - यही अस्तित्व का प्रयोजन है। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व में स्वयं-स्फूर्त प्रकटन विधि है। ज्ञान-अवस्था के प्रमाणित होने के लक्ष्य से ही सह-अस्तित्व विधि से अस्तित्व में प्रकटन है। अस्तित्व में प्रकटन है - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और अंत में ज्ञान-अवस्था। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व का परम प्रमाण प्रस्तुत होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

साभार- http://madhyasth-darshan.blogspot.in/2008/08/blog-post_02.html

Sunday, January 21, 2018

"दायित्व और कर्तव्य" शब्द को लेकर मध्यस्थ दर्शन वाङ्ग्मय में आये सन्दर्भ

परिभाषा: 
दायित्व   
  • संबंधों की पहचान सहित मूल्यों का निर्वाह।
  • परस्पर व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्थात्मक संबंधों में निहित मूल्यानुभूति सहित शिष्टतापूर्ण निर्वाह।
  • सम्बन्धों में ज़िम्मेदारी स्वीकारना, उत्तरदायित्व का वहन, निष्ठा का बोध।  (स्रोत- परिभाषा संहिता, संस्करण : 2012, मुद्रण: 14 जनवरी 2016, पेज नंबर: 89)  
कर्त्तव्य  
  • उत्पादन कार्य में प्रमाणित होने की प्रक्रिया  और सेवा कार्य सहित उत्पादित वस्तुओं का सदुपयोग प्रायोजित करना।
  • प्रत्येक स्तर में प्राप्त संबंधों एवं सपर्कों और उनमें निहित मूल्य निर्वाह।
  • दायित्व का निर्वाह, पूरा करना।  (स्रोत- परिभाषा संहिता: संस्करण: 2012 : मुद्रण: 2016, पृष्ठ नंबर:55)
अन्य संदर्भ परिभाषा संहिता से (संस्करण : 2012 मुद्रण: 14 जनवरी 2016)
  • कर्त्तव्य बुद्धि - उत्पादन कार्य में कुशलता निपुणता को नियोजित करने की विधि सहज प्रवृत्ति। (पृष्ठ नंबर:55)
  • कर्त्तव्यवादी  - उत्पादन संबंधी व्यवहार को पूरा करने में कटिबद्धता। (पृष्ठ नंबर: 55)
  • कर्त्तव्य निष्ठा
- ''त्व'' सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी।
- समृद्धि सम्पन्नता का प्रमाण।
- मानवीयतापूर्ण शिक्षा, संस्कार, आचरण, व्यवहार में निष्ठा। स्वतंत्रता स्वराज्य में निष्ठा।
- उत्तरदायित्व का वहन। (पृष्ठ नंबर: 55)
(दायित्व और कर्तव्य पर बाबा जी के साथ राकेश भैया जी का संवाद )

(दायित्व और कर्त्तव्य को लेकर मध्यस्थ दर्शन वाङ्ग्मय में आये सन्दर्भों को निम्न क्रम से संकलित किया गया है।  नीचे दिये गए प्रत्येक लिंक पर जाकर आप संकलन देख सकते हैं।)


  1. मानव व्यवहार दर्शन 
  2. मानव कर्म दर्शन 
  3. मानव अभ्यास दर्शन
  4. मानव अनुभव दर्शन
  5. समाधानात्मक भौतिकवाद
  6. व्यवहारात्मक जनवाद
  7. अनुभवात्मक अध्यात्मवाद
  8. व्यवहारवादी समाजशास्त्र 
  9. आवर्तनशील अर्थशास्त्र
  10. मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान
  11. मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या
  12. जीवन विद्या –एक परिचय 
  13. विकल्प  
  14. जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु  
  15. संवाद- 1  
  16. संवाद-2
नोट- (सभी संदर्भ संबन्धित वाङ्ग्मयों के PDF से लिए गए हैं कोई भी अंतर होने पर कृपया मूल वाङ्ग्मय को ही सही माना जाए। ) 


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज
http://madhyasth-darshan-definitions.blogspot.in/2018/01/blog-post_76.html

"शिक्षा" शब्द को लेकर मध्यस्थ दर्शन वाङ्ग्मय में आये सन्दर्भ

परिभाषा: 
  • शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय का प्रक्रिया।
  • अस्तित्व में जीवन सहज मूल्य, मानव मूल्य, व्यवसाय मूल्य, स्थापित मूल्य एवं शिष्ट मूल्य के प्रति निर्भ्रम जानकारी सहित व्यवसाय, व्यवहार चेतना की परिष्कृति|  (परिभाषा संहिता: संस्करण: 2012 : मुद्रण: 2016, पेज नंबर:219)
सन्दर्भ: परिभाषा संहिता (संस्करण: 2012 : मुद्रण: 2016, पेज नंबर:)
  • उन्मादत्रय शिक्षा - लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाज शास्त्र और कामोन्मादी मनोविज्ञान का प्रवर्तन क्रिया कलाप। (पेज नंबर: 48 )
  • मानवीय शिक्षा  - अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन-जागृति रासायनिक एवं भौतिक रचना, विरचना का अध्ययन। 
          - अवधारणा सहित बौद्धिक विशिष्टता सहज सहअस्तित्व पूर्ण, विश्व दृष्टिकोण की क्रिया शीलता।
          - सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता का वर्तमान और उसकी निरंतरता। (पेज नंबर: 151)
  • शिक्षा नीति - सहअस्तित्व बोध, जीवन बोध, मानवीयतापूर्ण आचरण बोध सहित मानव लक्ष्य बोध, जीवन मूल्य बोध, लक्ष्य सफलता के लिए निश्चित दिशा बोध कराने के साथ  -  साथ स्वयं में विश्वास श्रेष्ठता का सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन व्यवहार में सामाजिक, उत्पादन में स्वावलंबन का बोध सर्व सुलभ होना। यहाँ बोध का तात्पर्य जीवन में समझने, स्वीकारने से है| (पेज नंबर:219 )
  • शिक्षण - शिक्षापूर्ण दृष्टि सहज विकास, जागृति की ओर दिशा, अध्ययनपूर्वक यथार्थ बोध निपुणता कुशलता, पांडित्य सहज शिक्षण। (पेज नंबर:219)
  • शिष्य- जिज्ञासु, मानवीय शिक्षा संस्कार को ग्रहण करने के लिए तत्पर। (पेज नंबर: 219)
  • शिक्षा संस्कार  - ज्ञान विवेक विज्ञान सहज बोध होना। (समझ में आना, स्वीकार होना ) (पेज नंबर:219)
(शिक्षा को लेकर मध्यस्थ दर्शन वांग्मय में आये सन्दर्भों को निम्न क्रम से संकलित किया गया है।  नीचे दिये गए प्रत्येक लिंक पर जाकर आप सूचना प्राप्त कर सकते हैं।)
  1. मानव व्यवहार दर्शन 
  2. मानव कर्म दर्शन 
  3. मानव अभ्यास दर्शन
  4. मानव अनुभव दर्शन
  5. समाधानात्मक भौतिकवाद
  6. व्यवहार जनवाद
  7. अनुभवात्मक अध्यात्मवाद
  8. व्यवहारवादी समाजशास्त्र 
  9. आवर्तनशील अर्थशास्त्र
  10. मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान
  11. मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या
  12. जीवन विद्या –एक परिचय 
  13. विकल्प 
  14. जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु 
  15. मानवीय आचरण सूत्र 
  16. संवाद- 1  
  17. संवाद-2
  18. श्री ए. नागराज जी द्वारा दिया गया पाठ्यक्रम
  19. चेतना विकास मूल्य शिक्षा का लघु प्रस्ताव (मानवीय शिक्षा-नीति का प्रारूप)
  20. 10 सोपानीय व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा संस्कार
  21. "शिक्षा" पर केन्द्रित मुख्य बातें (मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद) वाङ्ग्मय में से)  
नोट- (सभी संदर्भ संबन्धित पुस्तकों के PDF से लिए गए हैं कोई भी अंतर होने पर कृपया मूल वाङ्ग्मय को ही सही माना जाए। ) 

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

Wednesday, September 29, 2010

कार्य और व्यवहार

एक ने कहा जी कर देखना....
तो हम चीजों को जांचेंगे, जी कर देखने का मतलब है.... कार्य और व्यवहार
व्यवहार (Behaviour)-
मानव का मानव के साथ सुख़ की अपेक्षा में किया गया श्रम। (इसे जाँचें. Universality को जाँचना है )
इसे जाँचें...
जाँचिये ऐसा है कि नहीं? अपने भीतर ही झाँकिये, एक एक लाईन आपकी जिंदगी का Explanation है इसलिए जांचने का काम गहराई से किया जाये।
एक सूत्र है लिख लीजिये.....
गुरु मूल्य में लघु मूल्य समाया रहता है "
गुरु मतलब बड़ा, लघु मतलब छोटा और मूल्य मतलब सुख़। २०,००० की नौकरी में २००० वाला शामिल है, तो मुझको बड़ा सुख़ मिलता है तो मैं छोटी चीजों के पीछे क्यों भागूँगा?
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है या कुछ पाने के लिए कुछ invest करना पड़ता है।
कार्य (Work) -
मानव का शेष प्रकृति (मनुष्येत्तर प्रकृति ) के साथ आवश्यक किया गया श्रम।
(Behaviour is towards happiness, work is getting towards the physical things, mainly we are talking about production (material) activity. )
व्यवहार - मानव का मानव के साथ
कार्य- मानव का Non human के साथ
व्यवहार का सारा मतलब सुख़ पाने के लिए है , कार्य का सारा मतलब physical thing/ सुविधा प्राप्त करने के लिए )
आदमी की जिंदगी की सारी उपलब्धियों का Nutshell कहें तो केवल एक शब्द "स्वयं के प्रति के विश्वास"।
मैं बहुत Power चाहता हूँ, मैं बहुत पैसा चाहता हूँ, मैं बहुत नाम चाहता हूँ, मैं बहुत ज्ञान चाहता हूँ ....
आख़िरकार सब कुछ यह है ..."मेरे भीतर जो अधुरापन है मेरे भीतर जो खालीपन है या जो विश्वास की कमी है या जो डर है, insecurity है मैं उससे मुक्त हो जाउँ।
सारा मामला इतना ही है मैं अपने अधिकार पे जीता हूँ तो स्वयं के प्रति विश्वास को पाता हूँ।
अभी वर्तमान में, हमारा जीना स्वयं के अधिकार पे नहीं है।
एक तरफ या तो यंत्र के अधिकार पे है विज्ञान ऐसा बोलता है instrument ऐसा कहता है या वो किसी शास्त्र के आधार पर है वेद ऐसा बोलता है, गीता ऐसा बोलती है.......
मैं भी कुछ बोल सकता हूँ ऐसा space बहुत कम है।
समझने के लिए ये ४ अवस्थाएँ हैं प्रकृति अपने- आप में/ स्वयं में एक व्यवस्था है, हर ईकाई स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदार है, समझने का unlimilted potential मेरे पास है और हर आदमी के भीतर inherent capability है कि वो चीजों को समझ सके, जाँच सके।
और उसके भीतर से यह आवाज़ आती है हाँ ये तो ऐसा ही है। It is like this only. "ये ऐसा ही है वह पहचान पाता है" इस क्षमता को हम इस्तेमाल कर सकें और अपने अधिकार पे जीने की जगह में आ सकें।
कार्य सही है तो इसका cross check क्या होगा?
यदि कार्य सही है तो परिवार में समृधि (Prosperity in family) और प्रकृति में संतुलन (Balance in nature) होगा।
इससे ज्यादा क्या हो सकता है इससे कम में क्या चलेगा? तो इससे ज्यादा कुछ होता नहीं इससे कम में कुछ चलता नहीं, इतना चाहिए।
यदि व्यवहार सही है तो उसकी पहचान क्या होगी?
दोनों पक्षों का सुख़।

अभी हम अच्छा व्यवहार करते हैं और सामने वाले का response नहीं है तो मुझे क्या लगता है? क्या कमी रह गई?
मुझसे कोई गलती हो गई क्या? Everyone has same problem.
इस धरती पर कोई भी आदमी बिना payment के काम नहीं करता है। एक माँ भी अपने बच्चे की सेवा क्यों करती है? उसको क्या payment मिलता है? बच्चे की मुस्कराहट माँ के लिए payment है।

Thursday, September 23, 2010

रास्ता क्या है?

करके समझना बहुत महंगा है। जैसे एक, करके समझना- अच्छा मकान हो जाये जिंदगी बन जाये।
इसको पूरा करने में कितना समय लगेगा? साल, साल या फिर १० साल। यह करके समझ आया कि मुझे यह नहीं चाहिए था।
फिर और कोई मान्यता!
इस प्रकार एक एक मान्यता हमारे जिन्दगी के कई साल ले लेती है जब हम वहां पहुँचते हैं तो हमें पता चलता है कि यह वह नहीं है!... या यह पर्याप्त नहीं है।
तो इस तरह hit n trial करके जिन्दगी को जिया जाये या एक सुनिश्चित मार्ग पर चलकर जिन्दगी जिया जाये। समझकर जीना भी जिन्दगी जीने का राजमार्ग है। सारे समय और क्षमता को बचाकर हम सुन्दर तरीके से जी सके और मुझको वहां पहुँच के लगे मैं यहीं पहुंचना चाहता था।
यही है! यही है! यही है!......

और उसको गुणित भी किया जा सकता है क्योंकि जब तक कोई चीज गुणित नहीं होती हमारे भीतर वह विश्वास नहीं आता है कि यह सही है। सही होगी तो सबकी जरूरत होगी। सबकी जरूरत होगी तो गुणित होगी।

Tuesday, September 21, 2010

जीना कैसा होगा?

अधिमुल्यन, अवमूल्यन या अमुल्यन करते हैं तो इसके आधार पर हमारा जीना कैसा होगा?
कठिन होगा, सामंजस्य नहीं होगा। ना आदमी के साथ सामंजस्य होने वाला है ना बाकि चीज के साथ।
सोम भैय्या ने आगे कहा -
अधिमुल्यन, अवमूल्यन और अमुल्यन को कहा D.P.T. "दुःख पाया टूरिस्ट" :)
हम सभी यात्री हैं सुख़ की तलाश में निकले हुए। हम जो चीज जैसी है उसको वैसा नहीं पहचान पाते, सामंजस्य पूर्वक नहीं जी पाते हैं तो दुःख पाते हैं, परेशां होते हैं।
इसको हमने सम्मानजनक भाषा दे दिया "Struggle" और इसे परिभाषित भी कर दिया।
Struggle मेरी और दूसरों की मूर्खताओं का परिणाम है प्रकृति में कोई struggle नहीं है।
हर इकाई स्वयं में व्यवस्था है समग्र व्यवस्था में भागीदार है।
सारा Struggle आदमी आदमी के बीच है,
क्या है बीच में?
"आप मुझको नहीं समझते हो?"
"मैं आपको नहीं समझता हूँ इतना ही Struggle है।
तो एक बात समझ में आई....... समझ सबके लिए एक है। चार अवस्थाओं का समझना ही समझ है।
अस्तित्व अपने आप में एक सह अस्तित्व है। हर इकाई अपने में व्यवस्था है समग्र व्यवस्था में भागीदार है और नहीं समझ पाते हैं तो अधिमुल्यन, अवमूल्यन और अमुल्यन करते हैं और परिणाम में दुःखी होते हैं।
तो क्या है रास्ता?
(मध्यस्थ दर्शन पर आधारित शिविर -श्री सोम त्यागी द्वारा प्रस्तुत)

Monday, May 31, 2010

समाधान, भ्रम/ भ्रान्ति

समाधान-
जो चीज जैसी है उसे वैसा ही जानना समाधान है।
भ्रम/भ्रान्ति-
जो चीज जैसी है उसे अन्यथा मान लेना।
अन्यथा के ३ प्रकार हैं:-
  • जो जैसा है उससे अधिक मान लेना - अधिमुल्यन (Overevaluating)
जैसे "बाप बड़ा ना भैय्या सबसे बड़ा रुपैय्या " यह क्या है ? पैसे का अधिमुल्यन
  • जो जैसा है उससे कम मान लेना -अवमूल्यन (Under evaluating)

कुछ देर बाद किसी ने कहा "ये पैसा ही सारे झंझट की जड़ है !" यह क्या हो गया ? अवमूल्यन।

  • जो जैसा है उसका कुछ का कुछ मान लेना - अमुल्यन (Evaluating something else)

किसी से गलती हुई हमने कहा "तुम गधे हो.." ये क्या हो गया अमुल्यन। मानव से सीधे गधे बना दिया।

"तुम तो राजा हो। ये भी अमुल्यन हुआ।

तो ऐसे ही लेकिन इन तीनों का परिणाम क्या आने वाला है?
जो चीज जैसी है उसको वैसा ही जानने के बजाय हम कुछ और मान लेते हैं अधिमुल्यन, अवमूल्यन या अमुल्यन करते हैं तो इसके आधार पर हमारा जीना कैसा होगा?