Monday, November 30, 2009

"तीन भूत....."


शीर्षक सुनकर कुछ अजीब लग रहा होगा ....
पर यह सच है हमारे सर पर यह तीन भूत विराजमान है...
कौन से?

लाभोन्मादी, कामोन्मादी और भोगोन्मादी ....

ये कहाँ से आए ?....क्या आप जानना चाहते हैं? तो देखिये "वर्तमान शिक्षा प्रणाली...."

Wednesday, November 25, 2009

"वर्तमान शिक्षा प्रणाली"

वर्तमान शिक्षा प्रणाली क्या उत्पन्न कर रही है?

पढ़े - लिखे हुनरमंद (skilled) मजदूर !

चाहे वह इंजीनियर के नाम पर हो या मेडिकल के नाम पर।
एक इंजीनियर को देखिये उसके पास यह दृष्टि ही नहीं है कि मेरे यह काम करने से प्रकृति पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा?
उसका सारा ध्यान केवल पैसे पर होता है जो उसके हुनर का ज्यादा पैसा देगा उसके लिए वह कार्य करेगा। चाहे प्रकृति का कुछ भी हो , ऐसा क्यों? क्योंकि हमारे शिक्षा में ऐसा भाग लगभग गायब है।
"यह शिक्षा व्यवस्था समाज को कितना प्रभावित कर रही है ? "आप आगे और देखेंगे।

समस्या की पहली जड़
अर्थशास्त्र
हम अर्थशास्त्र पढ़ते हैं...
"आवश्यकताएं असीम है साधन सीमित है।" (रॉबिन्सन के अनुसार)
ऐसा लगभग ९०% लोगों का मानना है यदि मान भी लिया जाए कि उपरोक्त वाक्य सही है तो यह मानव के भीतर सुरक्षा को जन्म देगा कि असुरक्षा को ?
"असुरक्षा को" जन्म देगा!
और असुरक्षा आदमी को अंदर से भयभीत कर देगी परिणामस्वरूप वह संग्रह करने लगेगा।

संग्रह करने के लिए क्या करेगा?"शोषण"
"ऐसा मैं चाहता नहीं हूँ मज़बूरी है करना पड़ेगा !"
शोषण से विरोध होगा, विरोध से विद्रोह ,विद्रोह से युद्ध और युद्ध से असुरक्षा और भय।

एक आदमी जो अपने को अच्छा मानता है वह जब संग्रह करता है तो शोषण उसकी मज़बूरी बन जाती है।
ऐसा क्यों?
वर्तमान अर्थशास्त्र हमें पढ़ा क्या रहा है?
"आवश्यकताएं असीम हैं साधन सीमित"
इससे आदमी सुखी होगा कि दुखी?
तो कुल मिलाकर अर्थशास्त्र घोषणा करके कहता है कि
"धरती के हर मानव का दुखी रहना निश्चित है "
इस विषय को पढ़ाने वाला सुखी रहने के लिए पढ़ाता है और क्या पढ़ाता है? दुखी रहना निश्चित है।

"इससे बड़ा मजाक आदमी के साथ क्या हो सकता है?"
यहाँ समस्या तभी पूरी होगी जब आवश्यकताएं पूरी हों।

समस्या की दूसरी जड़
मनोविज्ञान

इसमे सबसे ज्यादा जो सिद्धांत प्रचलित हुआ था फ्रॉयड का -
"मानव के समस्त क्रियाकलाप का केन्द्र काम है।"
ये भी क्या गजब की बात है कि इस देश में मन, आत्मा, बुद्धि और दर्शन पर इतना गंभीर कार्य हुआ है और हमारे शिक्षा तंत्र में इसमें से कुछ भी नहीं दिखता।

इनमे से कोई भी दर्शन हमारे regular शिक्षा का हिस्सा नहीं है।

समस्या की तीसरी जड़
समाजशास्त्र (sociology)
इसमें एक Theory आयी डार्विन की "Srvival of the fittest"
बलशाली जीतेगा "जिसकी लाठी उसकी भैंस" बोलचाल की भाषा में।
Money Power, Arms Power, Muscle Power जिसके पास होगा वह दुनिया चलाएगा तो अमेरिका के पास ये सबसे ज्यादा है तो वह U.N.O. चलाएगा।
या आप कहें जिसे जीना है उसके पास यह होना चाहिए ...
Money Power, Arms Power, Muscle Power को इकट्ठा करने के लिए शोषण करना मेरी मजबूरी है उससे जो कुछ होता है वह हमारे सामने है।
दो भाइयों के बीच यही होता है, दो देशों के बीच यही होता है ,दूसरी धरती मिली नहीं है मिली होती तो यही होता।
ये हमें व्यवस्था की ओर ले जा रहा है कि अव्यवस्था की ओर ले जाएगा?

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इस मान्यता "मानव के क्रिया कलाप का केन्द्र काम है" क्या इस मान्यता के साथ एक बहन अपने भाई पर विश्वास कर पायेगी?
एक बेटी अपने पिता के साथ विश्वासपूर्वक जो पायेगी?
और भी उदहारण आपको परिवारों में देखने को मिलेंगे? जो इस मान्यता के परिणाम स्वरूप घटित होते हैं।
तो यह व्यवस्था की ओर ले जा रहा है की अव्यवस्था की ओर?
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* ये अर्थ शास्त्र किस तरह की मनोवृत्ति पैदा कर रहा है?
"लाभोन्माद अर्थात लाभ का उन्माद"

यह अर्थशास्त्र लाभोन्मादी अर्थशास्त्र है। उन्माद मतलब पागलपन, लाभ के उन्माद को पैदा करता है और Best talent को हम किसी कंपनी के मुनाफे के लिए घुसा देते हैं।
देश के best talent का काम किसी कंपनी के मुनाफे को बढ़ाना है या देश को व्यवस्थित करना है ?
हम किधर भेज रहें है सारी की सारी पीढ़ी को?

* और एक मानसिकता " कामोन्माद" जो दिया जाता है मनोविज्ञान द्वारा।
तो यह हुआ "कामोन्मादी मनोविज्ञान"

* इस तरह से समाज शास्त्र को क्या कहा जाएगा? आसपास के कई उदाहरण देखने के बाद यह बात देखने में आती है कि हमारे जीने की शैली उपभोग की ओर जाती है।
तो यह हुआ "भोगोन्मादी समाजशास्त्र"
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तो हम इस तरह ३ भूत "लाभोन्माद, कामोन्माद और भोगोन्माद" को आदमी के सर पर बिठा कर रखे हैं।
अब इन तीनों भूतों के सवार होने के बाद आदमी चाहे कुछ भी बने इंजीनियर, डॉक्टर, राजनीतिज्ञ चाहे प्रवचन भी करता हो कहीं भी जाए अंतत: व्यवस्था में शामिल होगा की अव्यवस्था में ?
ये अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र जब घर में बीवी से झगड़ा हो तो कोई काम नहीं आता। सिर्फ़ पैसा बनाने के काम आता है मतलब जीने में नहीं है तो वह कुछ और ही है।
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ये ३ भूत को जो हम वर्तमान शिक्षा में डालकर रखें है जिसका उत्पाद यह है।
"शिक्षित है पर समझदार नहीं"


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अब इन 4 मॉडल को देखिये (यह सोम भैय्या द्वारा सर्वे किया गया है):-
१) सही करके सफल हुआ जाए?
२)ग़लत करके सफल हुआ जाए?
३) असफल हुआ जाए सही करके?
४)या असफल हुआ जाए ग़लत करके?


* ९०% बच्चों में दूसरा मॉडल देखने को मिलेगा इनमें लड़कियां भी शामिल हैं।
"कुछ भी करके सफल होना है" फ़िर यह भी कहेंगे "इतना कुछ ग़लत नहीं करना चाहते जो बहुत ज्यादा ग़लत हो!"
*५-६ बच्चे ऐसे भी मिल जायेंगे जो तीसरे मॉडल को पालन करते मिल जायेंगे "हम सही करना चाहते हैं चाहे असफल क्यों ना हो जाए" लेकिन जब ये जिन्दगी की दौड़ में शामिल होंगें तो कितना टिक पाएंगे ?...
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तो हमने पहला मॉडल "सही करके सफल हुआ जाए" दिया ही नहीं है।
आज आदमी किसी भी कीमत पर सफल होना चाहता है आज अगर उसके पास पहले मॉडल होता तो १००% आदमी इसे पालन करते।
अभी तो सफलता का पैरामीटर तय नहीं है इस पर clear vision बने, नियम बने तब ऐसा होगा।
पर ऐसा नहीं है !!
और इन तीनों भूत के सवार होने पर व्यवस्था कहाँ जायेगी इसकी आप कल्पना कर सकते हैं।
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समाज में ४ तरह के लोग हैं।
पहले लोग जो गलती करते हैं मतलब भ्रष्टाचार, लड़ाई झगड़ा, खून खराबा, चोरी आदि।
दूसरे लोग जो गलती नहीं करते मतलब नशा नहीं करते आदि।
तीसरे लोग अच्छा सोचते हैं, भ्रष्टाचार कैसे रोका जाएगा इस पर सेमिनार भी करते हैं और भी इस तरह की बहुत सारी बातें।
चौथे लोग मानव और प्रकृति के साथ तालमेलपूर्वक जीते हैं।
*दूसरे और तीसरे को आप अच्छा आदमी कह सकते हैं लेकिन चौथे प्रकार के लोगों को क्या कहेंगे?
"समझदार"
इससे कम में आदमी क्या अच्छा होगा? और दूसरे, तीसरे प्रकार के लोग अच्छा होने के लिए प्रयासरत हैं।

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सोम भैया ने आगे कहा .....
इस बात पर इतना बल इसलिए दिया जा रहा है की यदि मुझे लगता है कि...
*मुझको जहाँ पहुंचना था मैं तो पहुँच गया हूँ मुझे तो और प्रयास नहीं करना।
*मैं यह सोचता हूँ कि ईमानदार हूँ तो ऐसा सब करने के बाद हम अपने को अच्छा मान बैठते हैं
*आगे सोचते हैं औरों को भी अच्छा बनाना है कैसे?
चलो समाज में कुछ ऐसा कर दिखाते हैं जिसको देख समाज प्रभावित हो और बहुत से लोग ऐसा सोचने लगे, करने लगे।
बहुत दिन बाद पता चलता है कि यदि ऐसा कुछ काम कर लिया तो आप पूज्यनीय बन जाते हैं गुणित (multiply) नहीं हो पाते।
आदरणीय नागराज जी कहते हैं कि "पूज्यनीय होना एक धीमी आत्महत्या के सामान है "

आप पूज्यनीय इसलिए हो रहे हो क्योकि आप गुणित नहीं हो पा रहे हैं इसका मतलब आप अकेले हो।
यदि आप गुणित होते तो ऐसे कई लोग होते।
* अर्थात हम जिसे आदर्श मानव कह रहे हैं जिसे हम साधू या पूज्यनीय कह रहे हैं मतलब ऐसा होने के प्रति हमारा विश्वास कहीं खोया हुआ है।
*एक आदमी यदि मानव के साथ तालमेलपूर्वक नहीं जी पाता है तो क्या वह एक छत के नीचे ठीक से जी पायेगा?
और दूसरी बात यदि कोई आदमी मानव के साथ ठीक से नहीं जी पाता तो क्या वह प्रकृति के साथ ठीक से जी पायेगा?
* क्या मानव और प्रकृति के साथ तालमेल में जीने से कम में आदमी जी पायेगा?

इससे ज्यादा कुछ हो नहीं सकता इससे कम में चलेगा नहीं तो अच्छा आदमी किसे बोलें?
* हम अपने परिवार , अपने आसपास के लोगों और जहाँ से आप तनख्वाह पाते हैं के लिए सब कुछ कर रहे हैं हम कुछ गलती भी नहीं करते फ़िर भी हमें तृप्ति नहीं मिलती ...
मतलब जो मानव फलाना - फलाना गलती नहीं करते वो "अच्छा आदमी" नहीं कह सकते तो हम उन्हें यह कह सकते हैं...
"बुरे नहीं है..."
* हम वो पढ़े लिखे समाज हैं जो " बुरे नहीं है।"
* हमने ज्यादा से ज्यादा क्या किया?
Technology में आगे बढ़ गए हैं और आदमी की जगह यह काम नहीं आती।
* परिवार में झगड़ा हो तो यह सब डिग्रियां धरी की धरी रह जाती है।
* पिछला ३०० या ५०-१०० साल में जो मानव का मानव के साथ जो development हुआ वह यह कि "मानव को मशीन के साथ जीने कि योग्यता आ गई है।"
मशीन है निपट लेगी।
मानव का मानव के साथ जीने का विश्वास कम हुआ है और मशीन के साथ जीने का विश्वास बढ़ने के कारण हम "one man family" की ओर बढ़े हैं।
* "Mass hypnotism each and everyone of us is partially and fully hypnotized."
हम सब सम्मोहित हैं किससे?
इन तीनों भूतों (लाभोन्माद, कामोन्माद और भोगोन्माद) और दूसरा १०१ चैनल से जो ३ भूतों का पोषण करते हैं और ऐसा ही जीने की जीवन शैली देते हैं। यही सफलता है यही सब कुछ है।
* हमारे अन्दर अध्यात्मवाद और भौतिकवाद के बीच युद्ध चलता रहता है। एक तो हमारा अध्यात्मवाद के प्रति आस्था है ....दूसरा भौतिकवाद में ऊँचाई को छूने की लालसा है।
  • जब हम बोलते हैं तो धर्म और अध्यात्मवाद पर बोलते हैं जब हम जीते हैं तो भौतिकवाद में जीते हैं।
  • हमारी आस्थाएं अध्यात्मवाद में है हमारी जीने की विवशता भौतिकवाद में है।

अभी की शिक्षा मानवीय है कि अमानवीय?
यह अमानवीय शिक्षा है!!!
* आप भौतिक शास्त्र, रसायनशास्त्र,इन्जीनियरिंग आदि किसी भी विषय पर कितना भी अच्छा पढ़ाये कुल मिलाकर हम एक पढ़ा लिखा मजदूर तैयार कर रहे हैं जो अंतत: ३ भूतों की सवारी करके किसी ना किसी को शोषण करने के लिए जाने- अनजाने इस system में मजबूर होगा।

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तो अब तक हमें यह बातें पकड़ में आयी.....
* हुनर (skill) समझ नहीं।
* सुविधा भी समझ नहीं।
*सुचना भी समझ नहीं।
* शासन व्यवस्था नहीं।
*
वर्तमान शिक्षा -
३ भूतों को शास्त्रों (लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाजचेतना और कामोन्मादी मनोविज्ञान) के रूप में स्थापित किया है इसका नाम वर्तमान शिक्षा है।

* चाहत से योग्यता बदल जाए, चाहत को हम जी सके इसका नाम शिक्षा है।
* विकास का अर्थ ४ अवस्थाओं में संतुलन सुनिश्चित होना है।

"शिक्षित और समझदार"



इसे जानने से पहले हम यह सारणी देखते हैं:-


  • पहली स्थिति एक व्यक्ति शिक्षित है परन्तु समझदार नहीं।
  • दूसरी स्थिति एक व्यक्ति अशिक्षित है पर समझदार है।
  • तीसरी स्थिति ऐसी भी हो सकती है एक व्यक्ति शिक्षित भी ना हो और समझदार भी न हो।
  • हम चाहते क्या हैं ? चौथी स्थिति। शिक्षित भी हों और समझदार भी होवें।

पहली स्थिति कहाँ हो रही है? ...
वर्तमान शिक्षा कुछ ऐसे ही उत्पन्न कर रही है।
आज आपको जो कुछ अच्छे लोग दिखाई पड़ते हैं वे अपने पारिवारिक या व्यक्तिगत संस्कार के कारण दिखाई पड़ते हैं नाकि वर्तमान शिक्षा के कारण।

तो समझदार कौन?
"मानव और प्रकृति के साथ तालमेल और सामंजस्यपूर्वक जीने की योग्यता से संपन्न मानव।"
और यही शिक्षा का उद्देश्य भी होना चाहिए।
लेकिन वर्तमान शिक्षा प्रणाली क्या उत्पन्न कर रही है?

Monday, November 23, 2009

वर्तमान जीवन शैली का विश्लेषण

३०० साल पहले का इतिहास देखने पर आप पायेंगे कि इस समय प्रकृति को पहुँचने वाला नुकसान कम है....... क्यों?
पहले पूरी धरती के लोग एक धार्मिक छत्र छाया के अंतर्गत चलते थे चाहे शंकाराचार्य हो , चाहे पोप ....... हमारे यहाँ तो उस समय जल भी देवता और सूर्य भी देवता थे..... इस मान्यता में जीने के कारण उस समय प्रकृति को होने वाला नुकसान कम था।

पर अब क्या दिखाई दे रहा है? ग्लोबल वार्मिंग, औद्योगिक प्रदुषण ....हर जगह हर तरफ़ जिधर देखो प्रकृति को भारी नुकसान पहुँचाया जा रहा है। यह सब प्रदुषण हमारे पिछले कुछ सालों की कमाई है।

यहाँ पर आपकी ओर एक प्रश्न उठ सकता है कि जनसँख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कहाँ से होगी? इसके लिए प्रकृति के साथ छेड़खानी ज़रूरी है।


हमें अपने जिन्दगी को चलाने के लिए क्या चाहिए?
यह जानने के लिए चलिए यह diagram देखते हैं।



  • सबसे पहले प्राण अवस्था अर्थात पौधों को जीने के लिए क्या चाहिए?

"पदार्थ" जो की भरपूर मात्रा में उपलब्ध है तो यहाँ पेड़ पौधों को कोई तकलीफ नहीं जीने में।

  • अब देखते हैं जीव अवस्था , इन्हें जीने के लिए चाहिए "पदार्थ और पेड़ पौधे "जो कि अनुपात में काफी मात्रा में उपलब्ध है तो यहाँ भी कोई समस्या नहीं।
  • और मानव को क्या चाहिए "पदार्थ, पेड़-पौधे और जीव " ये तीनों ही अनुपात में अत्यधिक है जिससे वह आराम से जी सकता है।
    फ़िर यह प्रश्न "कि मानव को जीने के लिए प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करनी ही पड़ेगी ?" कहाँ से आया?

चलिए इस समस्या की जड़ तक पहुँचने की कोशिश करते हैं।
पिछले ५० सालों में Formal Education (औपचारिक शिक्षा ) बहुत बढ़ी है।
जिसके बढ़ने के साथ प्रकृति के साथ मानव का और मानव का मानव के साथ सम्बन्ध हमें गंभीर चिंतन की ओर ले जाते हैं।

माँ-बाप अपने बच्चे को क्या यह सोचकर पढ़ाते लिखाते हैं कि बेटा पढ़ लिखकर हमारा सम्मान नहीं करेगा ?
नहीं ना?
एक शिक्षित व्यक्ति से हमें समझदार होने की कामना है ही।

शिक्षित और समझदार व्यक्ति कौन ?

(क्रमश:)

Wednesday, November 18, 2009

स्वागत है...

आपका स्वागत है राकेश गुप्ता जी! आपका बहुत बहुत शुक्रिया ..... आपका मार्गदर्शन हमें मिलता रहे ....इस आशा के साथ आपका पुन: शुक्रिया!

Monday, November 16, 2009

"मानवकृत व्यवस्था या अव्यवस्था..."



अब चलिए दूसरी अवस्था पर गौर करते हैं .......

मानव किसी परिवार में है परिवार में ही पैदा होता है और वह परिवार किसी समाज से जुड़ा हुआ है व समाज किसी मानवकृत व्यवस्था से जुड़ा है जैसे शिक्षा व्यवस्था, राजनीति व्यवस्था और धार्मिक व्यवस्था आदि।


एक परिवार में एक बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता जाता है .... अब यहाँ पर एक प्रश्न आपसे - "बच्चे की उम्र बढ़ने के साथ साथ माता-पिता व शिक्षकों के प्रति उसका सम्मान बढ़ रहा है कि घट रहा है? " ऐसा हम चाहते तो नहीं पर सामान्य रूप से यह घटित हो रहा है। बच्चे को लगता है माता -पिता उसे समझ नहीं पा रहे हैं या generation gap या बहुत सारी इस प्रकार की बातें, परिवार को लगता है कि उम्र बढ़ने के साथ यह बिगड़ रहा है।


चलिए अब परिवार और समाज के बीच संवाद को देखते हैं, कैसा है?.....


समाज से पूछते हैं ये सब समस्या किसके कारण है? जवाब आएगा -"ये सब परिवार के कारण है "


और परिवार को क्या चाहिए? सब कुछ ठीक हो, रोड ठीक हो, भ्रष्टाचार न हो, राजनीतिक तंत्र दुरुस्त हो।
पर करूँगा क्या ? बस मेरे बीवी और बच्चे। परिवार समाज को दोषी ठहरता है।
अब चलिए आदमी और समाज के बीच के सम्बन्ध देखते है।


"चाहे स्नातक हो , पी.एच.डी.किया हो इनसे पूछो कि आप समाज से क्या सम्बन्ध महसूस करते हैं? जो आपके जिन्दगी का हिस्सा है?
सामान्य रूप से यह उत्तर मिलेगा "कोई लेनदेन नहीं !"


अब कुछ और छोटी बातों पर गौर करतें हैं।
=> जब आप नशा करते हैं मसलन सिगरेट, तम्बाकू और शराब , तो आप क्या कहते हो ? कोई बात नहीं सब चलता है....
और अगर बच्चा करे तो आप मना करोगे !
अरे जब कोई चीज ठीक है तो बच्चा तो करेगा ही ना !
=> मै जिस परिवार में जीता हूँ आपस में बढ़िया तालमेल होना चाहिए।
और अभी की परिस्थितियों में ?
"तो हम एक छत के नीचे जीतें हैं कि रहते हैं ?"


परिवार और व्यवस्था ,समाज और व्यवस्था इनके बीच देखा जाए तो वही गहरे सवाल।
"शुरू में कुछ लोग मिलकर एक व्यवस्था बनाते हैं ताकि परिवार ठीक से चल सके बाद में यह व्यवस्था इतनी बड़ी और हावी हो जाती है कि वह समाज को चलाती है। "
अब ऊपर चित्र को देखें :-
दो स्थितियाँ दिखाई देती है -
=> एक तरफ मानव का और जड़ प्रकृति का सम्बन्ध ,
=> दूसरी तरफ मानव का मानव के साथ सम्बन्ध
इन दोनों स्थितियों को देखने पर क्या नज़र आता है?
"मानव कि भूमिका जहाँ से शुरू होती है वहां से सारी समस्या आ खड़ी होती है।"

Sunday, November 15, 2009

"चार अवस्थाओं का होना..."


सर्वप्रथम हम सारी सृष्टि को देखते हैं
=> एक तो पदार्थ अवस्था मात्रा से नियंत्रित है
=> दूसरा प्राण अवस्था है जहाँ कोशिकाएं श्वसन करती हैं (भौतिक रासायनिक क्रियायें)। यह बीज परम्परा से नियंत्रित है ।
=> जीव अवस्था जिसमें सारे जीव आते हैं। यह वंश परंपरा से नियंत्रित है।
=> ज्ञान अवस्था जिसमें केवल मानव आते हैं। यह संस्कार परंपरा से नियंत्रित है।
चलिये अब देखते हैं एक उदाहरण द्वारा कि मानव की भूमिका क्या है?

H2 + O2--> 2H2O
हम जानते हैं कि H2 (हाइड्रोज़न) और O२(ऑक्सीजन) का जो सयोंग है एक निश्चित विधि से सयोंग है वह पानी है एक रासायनिक प्रक्रिया है।
ये जो globing warming है इतनी तेजी से बदल रही है कि जो पानी को पानी रहने के लिए जैसा वातावरण चाहिए अगर वैसा नही मिले तो यह प्रक्रिया पलट सकती है।
ऐसी परिस्थिति जरूर बन सकती है जिस प्रकार मानव जी रहा है।
ध्यान दीजिये जब किसी चुम्बक को गर्म किया जाए तो क्या होगा उत्तर आएगा की चुम्बकीय प्रभाव नष्ट हो जाएगा।
और हम इस बात को स्वीकारते हैं कि धरती भी एक बड़ा चुम्बक है अब यदि globle warming( ग्लोबल वार्मिंग )इस तरह बढ़ती रहे और किसी स्तर को यह पर कर जाए तो इस धरती रूपी चुम्बक का क्या होगा ?

पहले इस बारे में बात करने की जरुरत नहीं थी पर अब क्यों? क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग तेजी से बढ़ रहा है।

स्टीफन हॉकिन्स ने कहा है जिस तरह से आदमी धरती पर जी रहा है उसकी अधिकतम आयु १०० साल या ५० साल हो सकती है और आदमी को कोई दूसरा ग्रह तलाश लेना चाहिए जहाँ वह स्थान्तरित हो सके। "

स्थान्तरित होने वाले कौन होंगे ? सभी हो पाएंगे क्या?
कौन कौन हो पायेगा? जिसके पास धन होगा!
**तात्पर्य यह है कि आदमी के द्वारा जो प्रकृति को नुकसान पहुँचाने का फैलाव है, हजारों लोग कि मृत्यु हो जाए यह उतनी बड़ी घटना नहीं है क्योंकि आदमी फ़िर से पैदा होता है उसकी भरपाई हो जायेगी लेकिन ये धरती आदमी के रहने लायक ही नहीं बचेगी तब एक महत्वपूर्ण समस्या आ खड़ी होगी।

क्या यह धरती मानव के रहने लायक बच पायेगी?

Saturday, November 14, 2009

"मानना नहीं जानना है ..."


आपके सामने एक प्रस्ताव है आपको मानना नहीं केवल जाँचना है।
* जैसे - आस्तिक और नास्तिक दोनों में क्या समानता है?
मानना भी एक "मान्यता" है और न मानना भी एक "मान्यता"है।
*जानने के लिए कुछ चीजों को जाँचना है और आदमी के पास वो क्षमता है कि वह चीजों को जान सकें।
*"निरीक्षण अर्थात् स्वयं में जाँचना "
हर चीज के लिए अपने भीतर से एक आवाज या स्वीकृति या अस्वीकृति आती है जैसे किसी आदमी को यह सिखाना नहीं पड़ता कि
"सुख क्या है या दुःख क्या है?"
वह पहचान पाता है या कोई faculty हमारे पास पहले से है जिससे हम चीजों को जाँच पाते हैं। अभी हम इसको एक दूसरा नाम देते हैं "सहज स्वीकृति "
अब आप इन्हें जाँचिये:-
*सभी सम्मानपूर्वक जीना चाहते हैं।
*सभी समृधिपूर्वक के साथ जीना चाहते हैं।
*कोई भी समस्या के साथ जीना चाहते हैं।
*कोई भी समस्या के साथ जीना नहीं चाहते।
=> क्या किसी ने यह सर्वे करके देखा है कि कौन - कौन सम्मानपूर्वक या सुखपूर्वक जीना चाहते हैं?
हमारे भीतर से आवाज आती है सभी ऐसा ही जीना चाहते हैं।
=> कहने का आधार क्या है? कि सभी ऐसे ही हैं वह क्या चीज है? जिससे हम ऐसा जाँच पाते हैं
इससे यह समझ आया कि सबमें कुछ तो एक ऐसी चीज है।
"पर वह क्या?"

Thursday, November 12, 2009

"कामना और प्रयास"

*कामना -जो हम चाहते हैं उस चाहत को पुरा करने के लिए जो प्रयत्न है और उसके अनुसार जब परिणाम नहीं आ पाते हैं तो साल या समय गुजरने के बाद वह थकान में बदल जाता है ।
* चाहनाओं की जगह हम सब एक हैं।
लेकिन उस कामनाओं को पुरा करने के लिए हमारे पास क्या योजनाएँ हैं?
*और यदि हम जैसा चाहते हैं वैसा नहीं आ रहें हैं तो उसके लिए कोई सोचने का विधिवत तरीका होगा?
ऐसा हम चाहते हैं।
और हमारी कामनाएं क्या है?

Tuesday, November 10, 2009

"बाबा श्री अग्रहार नागराज शर्मा जी का परिचय...."



शिविर के बारे में आगे और कुछ कहें उसके पहले मैं आप सभी को बाबा जी के बारे में बताना चाहूंगी।


"बाबा जी की शरीर यात्रा मैसूर प्रान्त (भारत) के एक छोटे से गांव अग्रहार में प्रारम्भ हुई, इसलिए वे हैं ऐ.नागराज। अर्थात अग्रहार उनका परिचय। उनके पिता एवं मामा का कुल इस युग के श्रेष्ठतम वेदज्ञ भारतीय आचार्यों में से हैं। श्री नागराज बाबा जी ने school का मुहँ नहीं देखा।


२२ वर्ष की अवस्था में उन्होंने हम्पा (पम्पापुर) की एक गुफा में श्री विद्या का एक पुरश्चरण किया, उससे जो दिव्य प्रेरणा अवतरित हुई, उससे वे कन्नड़ भाषा के विख्यात कवि हो गए। सारी रात हजारों हज़ार लोग मन्त्र मुग्ध होकर उनको सुना करते थे। उसके पहले अपने गुरुदेव, श्रृंगेरी मठ वे शंकराचार्य, श्री चंद्रशेखर भारती के निर्देश से वे अचानक काशीपुरी चल दिए, वहाँ उन्होंने भगवान् शिव की नगरी में गंगा किनारे स्वावलंबी रहकर तप किया एवं भगवान शिव को सर्व शुभ के रूप में स्वीकारा . वहाँ से लौटकर गुरुदेव के आदेश से उन्होंने वंदनीया माँ से विवाह किया. वे मद्रास में प्रसिद्ध उद्योगपति भी रहे, समाज सेवा, धर्म,राजनीति, गृहस्थ, जीवन और समाज की विसंगतियों का व्यापक अनुभव हुआ।


पर वेदांत का एक प्रश्न-कि मुक्ति के बाद क्या? मुक्ति का प्रयोजन क्या है? उनको मथते रहा. वे महात्मा गाँधी, योगी अरविन्द, महर्षि रमण जैसे दिग्गज लोगों से पूछते रहे, तब भी समाधान नहीं मिला.उनके परिवार में पिछले ७०० वर्षों से कोई न कोई व्यक्ति सन्यास लेकर सत्यानुसंधान में लगा रहा. बाबा ने सोचा कि मुझे अपने प्रश्नों का समाधान स्वयं खोजना चाहिए. वे अपना सारा उद्योग समेटकर माताजी के साथ अनुसन्धान के लिए अमरकंटक की एकांत पहाडियों में आ बसे. आज से लगभग ४६ वर्ष पहले वे निश्चय करके आये थे भीख नहीं मांगेंगे. खाने को नहीं था तो पुराने ऋषियों की तरह लगभग तीन वर्ष पेड़ के पत्ते आदि खाकर रहे. शाम ६ बजे से प्रात: ६ बजे तक, कभी कभी प्रतिदिन १७-१८ घंटे तक वे साधनारत रहे।


सन् १९६६ में उनको वेदान्त का अन्तिमसार निर्विकल्प समाधी का अनुभव हुआ. पर प्रश्न का उत्तर अभी बाकी था. अत: पतंजलि के योग सूत्र में वर्णित सयंम का आकाश में उन्होंने अवधान किया, तब सम्पूर्ण अस्तित्व और समग्र व्यवस्था के सारे सूत्र उनके सामने उजागर हो गए. वे अस्तित्व दृष्टा हुए. अस्तित्व दर्शन, जीवन सार्थक सम्पूर्ण, संतृप्त और पूर्ण जागृत हुआ.दृष्टा पद का साक्षात्कार हुआ. सम्पूर्ण दिशा, कोण, परिप्रेक्ष्य आयाम में समाधान प्राप्त हुआ। वे 'अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन' रूपी समाधान को प्राप्त कर संतृप्त हुए. उन्होंने 'मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद' का प्रणयन किया. दस वर्षों तक वे सोचते रहे, परीक्षा करते रहे कि मानवजाति को इसकी जरुरत है कि नहीं. आज की अंतहीन समस्याओं के समाधान के लिए इसको अत्यंत उपयोगी जानकर उन्होंने लोगों से इस दर्शन की चर्चा करना प्रारंभ किया.आज भारत के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक,चिन्तक, समाजसेवी,धार्मिक कार्यकर्त्ता, उनके पुण्यमय संपर्क में है. विदेश से भी वैज्ञानिकों का दल उनसे जीवन और जगत के किसी भी विषय पर विचार विमर्श करने आते हैं.इंजीनियर्स, वनस्पति शास्त्री,चिकित्सक,धर्मनेता, कलाकार, विश्व विद्यालय के चांसलर्स, सभी अपने अपने विषयों में चर्चा करके स्तंभित रह जाते हैं. समाधान की रोशनी में बाबाजी भारत के विख्यात आयुर्वेद विद्या के चिकित्सक हैं. सम्पूर्ण भारत से तथा विदेशों से निराश होकर लौटे असाध्य रोगी उनके पास आते हैं और आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों की चिकित्सा से मृत्यु के द्वार तक पहुंचे रोगी भी ठीक हो जाते हैं मै स्वयं इसका उदाहरण हूँ. बाबाजी ने 'समग्र चिकित्सा ज्ञान विज्ञान' की एक नई अवधारणा दी है, जिसे विश्व सम्मलेन में भारतीय डॉक्टरों ने प्रस्तुत किया'।


वे वैज्ञानिकों में सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक, धर्मनेता, चिन्तक, दर्शक,वेदज्ञ, कलाकार,कवि और भारत का एक सामान्य औसत किसान सब एक साथ हैं. स्वभाव में सरल, साहसी, स्वावलंबी, दुनिया में किसी के विरोध की परवाह न करने वाले अस्तित्वदर्शी, जीवन विद्या के मर्मज्ञ, परम सत्य के रूप में ईश्वर को पहचानते हुए एक महापुरुष हैं. उनका कोई साधू वेश नहीं है. वे बिलकुल सादगी से भारत के आम आदमी की तरह रहते हैं.प्रयोजन होने पर सम्पूर्ण से भारत में भ्रमण करते हैं,शेष समय अमरकंटक. वे असामान्य रूप से सामान्य, बिना साधुवेश के अस्तित्वदर्शी, ज्ञानावतार व एक शांत सर्वतोमुखी समाधानकारी व्यक्ति हैं.


(संकलित)

Thursday, November 5, 2009

"आपके विचारों का स्वागत है....."

संजय भास्कर जी,पंकज पुष्कर जी,रचना गौड़ 'भारती' जी, अजय कुमार जी एवं डॉ.राधेश्याम शुक्ल जी आप सभी का विशेष रूप से धन्यवाद कि आपने अपना बहुमूल्य समय प्रदान किया।
इस ब्लॉग को शुरू करने के पीछे मेरा उद्देश्य यह था:-
पहला, एक बार और जीवन के बारे में अध्ययन करने की इच्छा थी,
दूसरा, मैं जिस तरह भ्रम में जी कर एक उद्देश्यहीन रस्ते पर चल रही थी उस तरह से और कोई ना जिए,
और तीसरा यह कि इस दौरान चर्चा से कई विद्वानों के बहुमूल्य विचारों से भी अवगत होने का मौका मिलेगा।
एक बार फ़िर से आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद।

Tuesday, November 3, 2009

"शिविर का पहला दिन... "

"पूज्य बाबा श्री ऐ.नागराज जी को प्रणाम"

जिन्दगी ने ऐसी करवट ली और मुझे एक रास्ता दिखाया जिस पर मैं चलते जा रही हूँ .....अब पीछे मुड़ने का कोई सवाल ही नहीं .....सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए और सारे भ्रम दूर हो गए। .....शिविर कैसा रहा? यहाँ क्या हुआ? मैंने क्या सिखा आप सभी के साथ बाँटना चाहूंगी।

शिविर अमरकंटक की पहाड़ियों में, प्रकृति के गोद में एक छात्रावास में आयोजित हुआ था।

पहला दिन था ....सभी प्रतिभागियों का परिचय हुआ। यह शिविर सोम भैय्या ने लिया था।

पहले दिन जिन विषयों पर चर्चा हुई निम्नानुसार है:-

*कामना और प्रयास

*मानना नहीं जानना है

*चार अवस्थाओं का होना

*मानवकृत व्यवस्था या अव्यवस्था

*वर्तमान जीवन शैली का विश्लेषण

*शिक्षित और समझदार

*वर्तमान शिक्षा प्रणाली


(क्रमश:)