Wednesday, September 29, 2010

कार्य और व्यवहार

एक ने कहा जी कर देखना....
तो हम चीजों को जांचेंगे, जी कर देखने का मतलब है.... कार्य और व्यवहार
व्यवहार (Behaviour)-
मानव का मानव के साथ सुख़ की अपेक्षा में किया गया श्रम। (इसे जाँचें. Universality को जाँचना है )
इसे जाँचें...
जाँचिये ऐसा है कि नहीं? अपने भीतर ही झाँकिये, एक एक लाईन आपकी जिंदगी का Explanation है इसलिए जांचने का काम गहराई से किया जाये।
एक सूत्र है लिख लीजिये.....
गुरु मूल्य में लघु मूल्य समाया रहता है "
गुरु मतलब बड़ा, लघु मतलब छोटा और मूल्य मतलब सुख़। २०,००० की नौकरी में २००० वाला शामिल है, तो मुझको बड़ा सुख़ मिलता है तो मैं छोटी चीजों के पीछे क्यों भागूँगा?
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है या कुछ पाने के लिए कुछ invest करना पड़ता है।
कार्य (Work) -
मानव का शेष प्रकृति (मनुष्येत्तर प्रकृति ) के साथ आवश्यक किया गया श्रम।
(Behaviour is towards happiness, work is getting towards the physical things, mainly we are talking about production (material) activity. )
व्यवहार - मानव का मानव के साथ
कार्य- मानव का Non human के साथ
व्यवहार का सारा मतलब सुख़ पाने के लिए है , कार्य का सारा मतलब physical thing/ सुविधा प्राप्त करने के लिए )
आदमी की जिंदगी की सारी उपलब्धियों का Nutshell कहें तो केवल एक शब्द "स्वयं के प्रति के विश्वास"।
मैं बहुत Power चाहता हूँ, मैं बहुत पैसा चाहता हूँ, मैं बहुत नाम चाहता हूँ, मैं बहुत ज्ञान चाहता हूँ ....
आख़िरकार सब कुछ यह है ..."मेरे भीतर जो अधुरापन है मेरे भीतर जो खालीपन है या जो विश्वास की कमी है या जो डर है, insecurity है मैं उससे मुक्त हो जाउँ।
सारा मामला इतना ही है मैं अपने अधिकार पे जीता हूँ तो स्वयं के प्रति विश्वास को पाता हूँ।
अभी वर्तमान में, हमारा जीना स्वयं के अधिकार पे नहीं है।
एक तरफ या तो यंत्र के अधिकार पे है विज्ञान ऐसा बोलता है instrument ऐसा कहता है या वो किसी शास्त्र के आधार पर है वेद ऐसा बोलता है, गीता ऐसा बोलती है.......
मैं भी कुछ बोल सकता हूँ ऐसा space बहुत कम है।
समझने के लिए ये ४ अवस्थाएँ हैं प्रकृति अपने- आप में/ स्वयं में एक व्यवस्था है, हर ईकाई स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदार है, समझने का unlimilted potential मेरे पास है और हर आदमी के भीतर inherent capability है कि वो चीजों को समझ सके, जाँच सके।
और उसके भीतर से यह आवाज़ आती है हाँ ये तो ऐसा ही है। It is like this only. "ये ऐसा ही है वह पहचान पाता है" इस क्षमता को हम इस्तेमाल कर सकें और अपने अधिकार पे जीने की जगह में आ सकें।
कार्य सही है तो इसका cross check क्या होगा?
यदि कार्य सही है तो परिवार में समृधि (Prosperity in family) और प्रकृति में संतुलन (Balance in nature) होगा।
इससे ज्यादा क्या हो सकता है इससे कम में क्या चलेगा? तो इससे ज्यादा कुछ होता नहीं इससे कम में कुछ चलता नहीं, इतना चाहिए।
यदि व्यवहार सही है तो उसकी पहचान क्या होगी?
दोनों पक्षों का सुख़।

अभी हम अच्छा व्यवहार करते हैं और सामने वाले का response नहीं है तो मुझे क्या लगता है? क्या कमी रह गई?
मुझसे कोई गलती हो गई क्या? Everyone has same problem.
इस धरती पर कोई भी आदमी बिना payment के काम नहीं करता है। एक माँ भी अपने बच्चे की सेवा क्यों करती है? उसको क्या payment मिलता है? बच्चे की मुस्कराहट माँ के लिए payment है।

Thursday, September 23, 2010

रास्ता क्या है?

करके समझना बहुत महंगा है। जैसे एक, करके समझना- अच्छा मकान हो जाये जिंदगी बन जाये।
इसको पूरा करने में कितना समय लगेगा? साल, साल या फिर १० साल। यह करके समझ आया कि मुझे यह नहीं चाहिए था।
फिर और कोई मान्यता!
इस प्रकार एक एक मान्यता हमारे जिन्दगी के कई साल ले लेती है जब हम वहां पहुँचते हैं तो हमें पता चलता है कि यह वह नहीं है!... या यह पर्याप्त नहीं है।
तो इस तरह hit n trial करके जिन्दगी को जिया जाये या एक सुनिश्चित मार्ग पर चलकर जिन्दगी जिया जाये। समझकर जीना भी जिन्दगी जीने का राजमार्ग है। सारे समय और क्षमता को बचाकर हम सुन्दर तरीके से जी सके और मुझको वहां पहुँच के लगे मैं यहीं पहुंचना चाहता था।
यही है! यही है! यही है!......

और उसको गुणित भी किया जा सकता है क्योंकि जब तक कोई चीज गुणित नहीं होती हमारे भीतर वह विश्वास नहीं आता है कि यह सही है। सही होगी तो सबकी जरूरत होगी। सबकी जरूरत होगी तो गुणित होगी।

Tuesday, September 21, 2010

जीना कैसा होगा?

अधिमुल्यन, अवमूल्यन या अमुल्यन करते हैं तो इसके आधार पर हमारा जीना कैसा होगा?
कठिन होगा, सामंजस्य नहीं होगा। ना आदमी के साथ सामंजस्य होने वाला है ना बाकि चीज के साथ।
सोम भैय्या ने आगे कहा -
अधिमुल्यन, अवमूल्यन और अमुल्यन को कहा D.P.T. "दुःख पाया टूरिस्ट" :)
हम सभी यात्री हैं सुख़ की तलाश में निकले हुए। हम जो चीज जैसी है उसको वैसा नहीं पहचान पाते, सामंजस्य पूर्वक नहीं जी पाते हैं तो दुःख पाते हैं, परेशां होते हैं।
इसको हमने सम्मानजनक भाषा दे दिया "Struggle" और इसे परिभाषित भी कर दिया।
Struggle मेरी और दूसरों की मूर्खताओं का परिणाम है प्रकृति में कोई struggle नहीं है।
हर इकाई स्वयं में व्यवस्था है समग्र व्यवस्था में भागीदार है।
सारा Struggle आदमी आदमी के बीच है,
क्या है बीच में?
"आप मुझको नहीं समझते हो?"
"मैं आपको नहीं समझता हूँ इतना ही Struggle है।
तो एक बात समझ में आई....... समझ सबके लिए एक है। चार अवस्थाओं का समझना ही समझ है।
अस्तित्व अपने आप में एक सह अस्तित्व है। हर इकाई अपने में व्यवस्था है समग्र व्यवस्था में भागीदार है और नहीं समझ पाते हैं तो अधिमुल्यन, अवमूल्यन और अमुल्यन करते हैं और परिणाम में दुःखी होते हैं।
तो क्या है रास्ता?
(मध्यस्थ दर्शन पर आधारित शिविर -श्री सोम त्यागी द्वारा प्रस्तुत)

Monday, May 31, 2010

समाधान, भ्रम/ भ्रान्ति

समाधान-
जो चीज जैसी है उसे वैसा ही जानना समाधान है।
भ्रम/भ्रान्ति-
जो चीज जैसी है उसे अन्यथा मान लेना।
अन्यथा के ३ प्रकार हैं:-
  • जो जैसा है उससे अधिक मान लेना - अधिमुल्यन (Overevaluating)
जैसे "बाप बड़ा ना भैय्या सबसे बड़ा रुपैय्या " यह क्या है ? पैसे का अधिमुल्यन
  • जो जैसा है उससे कम मान लेना -अवमूल्यन (Under evaluating)

कुछ देर बाद किसी ने कहा "ये पैसा ही सारे झंझट की जड़ है !" यह क्या हो गया ? अवमूल्यन।

  • जो जैसा है उसका कुछ का कुछ मान लेना - अमुल्यन (Evaluating something else)

किसी से गलती हुई हमने कहा "तुम गधे हो.." ये क्या हो गया अमुल्यन। मानव से सीधे गधे बना दिया।

"तुम तो राजा हो। ये भी अमुल्यन हुआ।

तो ऐसे ही लेकिन इन तीनों का परिणाम क्या आने वाला है?
जो चीज जैसी है उसको वैसा ही जानने के बजाय हम कुछ और मान लेते हैं अधिमुल्यन, अवमूल्यन या अमुल्यन करते हैं तो इसके आधार पर हमारा जीना कैसा होगा?

Saturday, February 20, 2010

"स्वयं में विश्वास और प्रयास....."

वर्तमान शिक्षा प्राप्त करने के लिए १८ और २० साल आपने अपने लगा दिए क्या अब भी हममें दो रोटी कमाने का आत्मविश्वास आ पाया है?
सोम भैया कहते हैं १८-२० साल लेकर हम (वर्तमान शिक्षा प्रणाली) उसमें दो रोटी कमाने का आत्मविश्वास नहीं आ पाता।

नौकरी लग गई तो हमको लगता है कुछ हो गया नहीं मिले तो road पर खड़ा रहे देखिये उसकी क्या हाल है ?

शायद ये मै नहीं कह रहा है कि सब कुछ गलत है लेकिन इसमें काफी gaps है उन gaps को भरने की जरुरत है। अब यदि हम देखे तो मै आपके सामने एक question रखता हूँ समझ का content सबके लिए एक है या अलग है।

समझ की विषय वस्तु सबके लिए एक है।

सोम भैय्या कहते हैं जितने लोग इस धरती से चले गए उनके लिए भी यह चार अवस्थाएं थी हमारे लिए भी यह चार अवस्थाएं थी जितने लोग और पैदा होने होने वाले हैं उनके लिए भी यही चार अवस्थाएं हैं। यही समझने का content है।

और ये चारों अवस्थाएं हिन्दू धर्म के हिसाब से काम करते हैं या मुस्लिम धर्म के हिसाब से?

कोई धर्म को follow नहीं करती है। ये प्रकृति धर्म को follow करते हैं।

एक परमाणु हिन्दू है कि मुस्लिम झंझट नहीं है एक परमाणु परमाणु है स्वयं में एक व्यवस्था है समग्र व्यवस्था में भागीदार है।

एक नीम का पेड़ चाहे हिन्दू के घर हो या मुस्लिम के घर में है। उसका एक निश्चित आचरण है। एक लोहे को हिन्दू बनाये कि मुस्लिम बनाये उसका एक निश्चित आचरण है। हर चीज अपने निश्चित आचरण के साथ है यह हमारी स्वीकृति बनती है। इस आधार पर हम इस पर विश्वास कर पाते हैं।
लोहे पर हमको बहुत विश्वास है लोहे का मूड ख़राब हो जाये। आज रविवार है आज नहीं उठाऊंगा इधर हमको विश्वास है। आदमी का कब मूड ख़राब हो जाये कब क्या करेगा? यह बिलकुल एक दूसरी बात है।
समझ में आता है कि हम विश्वास कहाँ कर पाते हैं? जड़ वस्तुओं पर, क्यों?

क्योंकि उनका आचरण निश्चित है तो जिसका आचरण निश्चित है हम उसके प्रति विश्वास कर पाते हैं।
क्या हम खुद पर विश्वास कर पाते हैं?

आचरण निश्चित नहीं है कभी भी जितना विचार हमको उठता है जितनी सारी इच्छाएँ हमको उठती है जिन लोगों के लिए उठती हैं। एक दिन जाकर उनको बता दिया जाये।
मेरे मन में तुम्हारे बारे में यह यह विचार आते हैं।
मेरे मन में तुम्हारे बारे में यह यह इच्छा होती है।
कैसा रहेगा?
तो मै खुद पर विश्वास कर नहीं पाता हूँ क्योंकि मुझे पता है कि मेरा आचरण निश्चित नहीं है।
मेरे भीतर कितने प्रकार की उटपटाँग बाते उठती रहती है इसलिए खुद पे विश्वास नहीं कर पाता हूँ तो सब ऐसे ही है ऐसे आदमी के साथ जीना मुश्किल है ऐसी स्वीकृति हमारी बनी हुई है।
तो अब क्या लगता है समझ सबके लिए एक ही चीज है या सबके लिए अलग अलग चीज है ?
एक ही चीज
!
फिर ये अलग अलग क्या था?
देखने का नजरिया।
कैसा?
४ अंधों ने हाथी देखा, आँख खोल के देखा होता तो पूरा हाथी जैसा है वैसा देखा होता तो हम जब दृष्टि कोण देखते हैं तो मेरी एक बात और मुझे समझ आई ये अच्छे विचार जीने के कोई काम नहीं आते हैं ये मै उस सन्दर्भ में कहना चाहता हूँ जिस सन्दर्भ में हम लोगों ने चर्चा की थी की बुरे नहीं हैं। इनको हम अच्छा लोग मान रहे थे अभी तक और हम क्या कहते हैं "अच्छे लोग तो पीसते हैं" ऐसा कुछ बोलते हैं कि नहीं?
अच्छे आदमी का तेल निकला जायेगा, अच्छे आदमी का शोषण होगा तो क्या कोई अच्छा आदमी बनना चाहेगा? और क्यों बनना चाहिए
बिलकुल नहीं बनना चाहिए और इसलिए अच्छे लोगों कि संख्या को भी देखना पड़ेगा। तो अब समझ में आया कि वो अच्छा था नहीं और जो suffer करते हैं वो इसलिए suffer करते हैं क्योंकि वे बुरों में शामिल हो नहीं सके ऐसा कहिये...अच्छे भी बन नहीं सके इसलिए बेचारा चौराहे पर खड़ा है।
इसकी पहचान ना इधर बन पाई इधर (बुरे ) आ जाता तो पहचान बनने का एक तरीका है! इधर (समझदार) हम पहुंचना चाहते हैं पहुँचने का रास्ता स्पष्ट नहीं है तो मुख्यत: अच्छा आदमी का मतलब है जिसको कोई Exploit ना कर सके वह किसी को exploit ना करता हो ऐसी हम सारी प्रार्थनाओं में भी बोलते हैं।
तो अब यह समझ में आता है जिसको हम अभी तक अच्छा आदमी बोल रहे थे वो अच्छा होना चाहता है अच्छा अभी है नहीं। अच्छा होने के बाद कोई दूसरा आपका शोषण कर ले कोई उद्योगपति आपको काम पर लगा ले क्योंकि हमारे भीतर भी कोई ना कोई लालच रहता है या हमारे भीतर यह स्पष्टता नहीं है कि मुझको करना क्या है?तो मै कहीं ना कहीं शामिल होऊंगा चुप तो बैठूँगा नहीं। कहीं ना कहीं शामिल होगा जिसमें वह शामिल होगा वह धरातल लाभोन्माद, भोगोन्माद और कामोन्माद का ही है।

Wednesday, February 17, 2010

कुछ प्रश्न स्वयं से करें?

* वर्तमान शिक्षा प्राप्त करने के लिए १८ और २० साल आपने अपने लगा दिए क्या अब भी हममें दो रोटी कमाने का आत्मविश्वास पाया है?

* अगर हमारी नौकरी चली गई तो हमारा क्या हाल होगा?

* समझ का विषयवस्तु क्या है? और क्या सबके लिए एक है या अलग -अलग?

* चार अवस्थाएं किस धर्म के हिसाब से काम करते हैं?

हिन्दू धर्म/मुस्लिम धर्म/प्रकृति धर्म

* हम जड़ वस्तुओं पर मानव से ज्यादा विश्वास कर पाते हैं क्यों?

क्या हम खुद पर विश्वास कर पाते हैं

हाँ/नहीं

नहीं? तो क्यों?

* आदमी हाथी को आँख बंद करके देखा तो क्या देखा ?

* फिर से वही प्रश्न दोबारा

समझ का विषयवस्तु सबके लिए एक या अलग -अलग।

* हम किस श्रेणी में आते हैं?

बुरे हैं/बुरे नहीं है/अच्छे हैं/समझदार हैं

* क्यों कहा जाता है?

" अच्छे लोग पीसते हैं।"

Good People is always suffer.

* क्या स्वयं के भीतर यह स्पष्टता बन पाई है कि करना क्या है?

* चुप तो बैठना नहीं है शामिल तो होना ही है पर कहाँ हो रहे हैं?

कहीं वह धरातल लाभोंमाद, भोगोंमाद और कामोन्माद का तो नहीं?
अगर ऐसा है तो भैया अपने को संभालो।
यह जीवन दोबारा नहीं मिलने वाला अभी समझ लो।

Saturday, January 30, 2010

"फिर बच्चे पढ़ने में मन क्यों नहीं लगाते?"

कैसे लगेगा भाई?
पढ़ना और पढ़ाना बहुत ही अस्वाभाविक क्रिया है।
शिक्षक पढ़ा-पढ़ा कर बोर हो गया बच्चे पढ़-पढ़कर।
हम उसे क्यों पढ़ा रहे हैं क्योंकि इससे परिवार चलना है।

समझना और समझाना, समझना और जीना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस क्षण बच्चे को लगता है कि मुझे समझने के लिए कुछ पढ़ना है फिर उसे कुछ motivation की ज़रूरत नहीं है।
समझना मानव की मौलिकता है यह उसकी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है इसे ना तो माता-पिता और ना ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली समझ पाते हैं।

समझने के लिए पढ़ना कि पढ़ने के लिए पढ़ना?
पढ़ने के लिए और रटने के लिए डाटा इकठ्ठा करने के लिए आदमी को कष्ट देने कि ज़रूरत नहीं है। इसके लिए कम्प्यूटर पर्याप्त है।
सारा रामायण, गीता, भागवत अंग्रेजी, हिंदी और २५ भाषाओं में डाल दीजिये सबकी व्याख्या वो कर देगा। उसके लिए आदमी को कष्ट देने कि ज़रूरत नहीं है।

"समझने" की ज़रूरत आदमी को है समझ के आधार पर जीने की ज़रूरत आदमी को है।
समझना एक रोचक काम है और जीना समझने से ज्यादा और किसी तक पहुंचा पाना और रोचक है।

अभी हमारे routine में समझने शब्द को इस्तेमाल करना और वास्तव में समझने शब्द के बीच कितनी दूरी है। आगे सोम भैया कहते हैं वर्तमान में समझने का क्या मतलब है यह आपके सामने एक प्रस्ताव रख रहा हूँ इसे आप स्वयं जांचें।

जैसे कुछ बात बोली....और क्या बोलते हैं हम "समझ गए ना?"

अगर उसे कुछ संदेह है तो वह कहता है..."ऐसा तो नहीं..."

तो हम क्या कहते हैं?...."समझे की नहीं....." और नहीं तो "बाहर निकालकर समझा दूंगा..."


हम अपनी पद प्रतिष्ठा के आधार पर अपनी उम्र के आधार पर अपनी किसी और status के आधार पर दुसरे से अपनी बात मनवा लेने को हम समझना बोलते हैं।

समझना हमारा स्वत्व है
स्वत्व (स्व+त्व) मेरी मौलिकता है मेरी पूँजी है आप मेरी पूँजी मुझसे छीन लेते हो। समझना मुझे है आदेश आपने पारित कर दिया।

तो भईया मैं किसी बात को जाँच सकूँ , जाँच कर उसके सहीपन को पा सकूँ और फिर उसे स्वीकारना तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
सारे सन्दर्भों में चर्चा करने पर हमें समझ आता है -"समझना मानव की मौलिक आवश्यकता है पढ़ना पढ़ाना नहीं ! "

इसलिए बच्चों को पढ़ने में रूचि नहीं है।
*************
एक टिपण्णी आदरणीय राकेश जी से -
यह बहुत सुन्दर प्रस्तुति है. इस बात को थोडा आगे बढ़ा सकते हैं.

दो भाग हैं - "समझना" और "करना".

हम कुछ न कुछ हर समय "कर" ही रहे होते हैं. इस तरह जीते हुए हम "कर के समझने" का प्रयास कर रहे होते हैं. विज्ञान विधि में भी "करके समझने" का सन्देश है. "practical करके देखोगे तो समझ में आएगा" - ऐसा कहते हैं. दूसरे अध्यात्मवादी विधि में भी "कर के समझने" का ही सन्देश है. "यह पूजा करो, ऐसे ध्यान करो, ऐसे दान करो - तब समझ में आएगा" - वे लोग ऐसा कहते हैं. इन दोनों के अलावा तीसरी सोच कोई अभी तक मनुष्य के इतिहास में आयी नहीं है. इन दोनों विधियों से आदमी ने खूब चल के भी देखा है. इन पर चल कर हम कहाँ पहुँच चुके हैं - यह हमारे सामने है.

इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव में सन्देश है - "समझ के करो!"

(१) करके समझ पैदा नहीं होती. समझने से ही समझ आता है. [ इसका प्रमाण है - आदर्शवादी या भौतिकवादी विधि से करके समझ अभी तक धरती पर पैदा नहीं हुई. ]
(२) जो समझा हो, वही समझा सकता है. नासमझ समझा नहीं पाता है. [ इसका प्रमाण है - अध्यापक और माता-पिता बच्चों को समझा नहीं पाते हैं. ]

यदि यह बात हमको जब स्वयं के लिए स्वीकार होती है - कि "मैं अपने सबसे करीबी संबंधों को अपनी बात समझाने में असमर्थ हूँ!" तो स्वयं में "समझने" की ज़रुरत का अहसास होता है. अन्यथा हम अपने को पहले से ही समझा हुआ माने रहते हैं. इस तरह समझने का रास्ता अपने लिए बंद किये रहते हैं.

तो मूल मुद्दा "समझना" है. समझने के बाद "करना" स्वयं-स्फूर्त होता है. समझने से पहले "करना" किसी न किसी आवेश या दबाव वश ही होता है. आवेश और दबाव में हम यदि कुछ भी करते हैं, उससे समस्या ही हाथ लगती है, समाधान हाथ लगता नहीं है. सभी आवेश भ्रम वश ही होते हैं.

समझ आवेश से मुक्ति है. समझ के "ठन्डे-दिमाग" से "करना" बनता है - जिससे समाधान ही जीने में प्रमाणित होता है.

समझ को स्वत्व बनाने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन के लिए एक प्रस्ताव है.

समझ जब तक स्वत्व नहीं बनी है - तब तक अध्ययन है.

यह अध्ययन-क्रम में की गयी प्रस्तुति है.
आपका सहृदय आभार..

Thursday, January 21, 2010

"मानव समझना चाहता है"

इसका प्रमाण हमें कैसे मिलता है?
जैसे ही एक बच्चा बोलना (भाषा) शुरू करता है वह क्या करता है?
प्रश्नों की बौछार.....
ये क्या है? वो क्या है? है ना?


उसे डांटना पड़ता है ,रोकना पड़ता है....प्रश्न सुन सुन कर चिढ़ होने लगती है इतना प्रश्न करता है।
क्या किसी ने उसको training दिया है की तुम प्रश्न पूछने के लायक हो गए हो तुमको अब प्रश्न पूछना चाहिए।
तो......बच्चे समझना चाहते हैं कि नहीं समझना?

देखिये दो चीज में बच्चे का ध्यान पूरा पूरा है सबसे पहले वह पैदा होता है तो भोजन की आवश्यकता .......तो हर चीज को मुँह की तरफ ले जाता है.....जैसे ही बोलना शुरू करता है तुरंत उसकी बहुत सारी जिज्ञासाएँ शुरू हो जाती है।
तो समझने कि जरुरत मानव के भीतर स्वाभाविक है.....है ना!
फिर बच्चे पढ़ने में मन क्यों नहीं लगाते?

*************

एक टिपण्णी आदरणीय राकेश जी से -

आपने पूछा - "मानव समझना तो चाहता है इसका प्रमाण क्या है?"मैं इस प्रश्न को इस तरह समझा - मैं स्वयं समझना चाहता हूँ, यह बात मुझे पता है. लेकिन समझ का प्रमाण क्या होगा - यह मुझे पता नहीं है. यह एक मौलिक बात है. मनुष्य में "समझ की चाहत" बनी हुई है. यह हर बच्चे-बड़े में समान रूप से है. यह चाहत एक "खोखलेपन" के रूप में हर मनुष्य में है. सब कुछ करने के बाद भी कुछ अभी शेष है - यह रिक्तता मनुष्य में जन्म से मृत्यु तक बनी रहती है. समझ की चाहत ही "सुख की चाहत" है. सुख को हम जानते नहीं हैं, पर सुख चाहते हैं. समझ हमें मिली नहीं है, पर हम समझ चाहते हैं. इस कमी को पूरा करने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान हुआ, जो अब अध्ययन के लिए उपलब्ध है. सुख का प्रमाण सुखी-मनुष्य ही होगा. सुखी-मनुष्य के बिना हम "सुख" को पहचान नहीं सकते. समझ का प्रमाण समझदार आदमी ही होगा. जीते-जागते समझदार-आदमी के बिना हम "समझदारी" को पहचान नहीं सकते.समझ का प्रमाण के रूप में एक "समझदार-मनुष्य" को यदि हम पहचान पाते हैं, और स्वयं को यदि "समझ चाहने वाले मनुष्य" के रूप में पहचान पाते हैं - तो अध्ययन करने में मन लगता है. नहीं तो अध्ययन में पूरा मन नहीं लगता. ध्यान बंटा ही रहता है. अध्ययन के लिए मन लगना ही एकाग्रता है, या ध्यान-देना है. समझदार आदमी की बात पर ध्यान देने पर हम समझ सकते हैं। समझदार-आदमी की बात ही "प्रेरणा" है - जिससे अध्ययन करने वाले की कल्पनाशीलता "प्रेरित" होती है। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु ही "समझ" है। बारम्बार समझने के प्रयास से समझ में आ जाएगा - मैं स्वयं को उसी क्रम में पाता हूँ. समझ कर "समझ का प्रमाण" हम अपने जीने में प्रस्तुत कर सकते हैं. स्वयं सुखी रह सकते हैं. दूसरों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत भी बन सकते हैं.

आदरणीय राकेश जी आपका सहृदय आभार....

Tuesday, January 12, 2010

अस्तित्व और सहअस्तित्व

हर ईकाई स्वयं में एक व्यवस्था है और वह व्यवस्था है इसका प्रमाण क्या है?
"समग्र व्यवस्था में भागीदार है।"
हर ईकाई यहाँ इसका मतलब है पदार्थ, जीव, पेड़-पौधे,अणु, परमाणु सौर मंडल सभी स्वयं में एक व्यवस्था है।
आप इसे स्वयं जाँचें।
इन सबका एक निश्चित आचरण है ....
जैसे सौरमंडल को आप देखकर समझते हैं कि सभी ग्रह-नक्षत्र ,तारे एक निश्चित भूमिका में है ये श्रेष्ठता का सम्मान करते हुए एक निश्चित दूरी बनाकर परिक्रमा करते हैं
इनमें एक व्यवस्था है इसका प्रमाण क्या है? इनमें कभी भी अन्तर्विरोध /संघर्ष नहीं होता।
"सम्बन्ध है तो शोषण/संघर्ष/विरोध नहीं ,शोषण/संघर्ष/विरोध है तो सम्बन्ध नहीं"
अगर कोई भी ईकाई स्वयं में व्यवस्थित है तो वह दूसरी ईकाई के विकास में कभी बाधा नहीं बनती और उसके विकास में सहयोग करती है।


हर ईकाई का होना अस्तित्व में है और होने के बीच जो अंतर्संबंध है वह सह अस्तित्व है।
अर्थात अस्तित्व(होना/existence) ही सहस्तित्व है।
इन चित्रों में देखिये यहाँ पेड़, मृदा और वायु होने के रूप में है।

और इस चित्र में देखिये उनके बीच सम्बन्ध अर्थात होने के बीच अंतर्संबंध को दिखाया गया है।
इसे समझने वाला मानव है इसे समझने का प्रयोजन है कि इसके साथ अपनी उपयोगिता और पूरकता को सिद्ध करना।

मानव, मानव और प्रकृति को जैसा वह है वैसा समझना तो चाहता है पर समझ नहीं पाया यह उसके जीने से सिद्ध होता है प्रमाणित होता है ......
परिणाम स्वरूप वह दुःख, भय, समस्या और असुरक्षा में जीता है या कहें जी नहीं पाता।
मानव समझना तो चाहता है इसका प्रमाण क्या है?

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एक महत्वपूर्ण टिपण्णी आदरणीय राकेश जी से-

अस्तित्व का मतलब है - "होना". "नहीं होना" - कुछ "होता" नहीं है. जो "है" उसी को हम समझ सकते हैं, उसी को समझने की ज़रुरत है, उसी के साथ हमको जीना होता है. यह एक मूल मुद्दा है. हम इस प्रस्ताव में केवल "जो है" - उसी को समझेंगे. दूसरे कोण से देखें तो - यदि हम "जो है" उसको नहीं समझते, तो समस्या-ग्रस्त रहते हैं. समस्या-ग्रस्त रहना हम "चाहते" तो नहीं हैं. दूसरे शब्दों में - हम अस्तित्व का अध्ययन करेंगे. यह सोचने पर बड़ा भारी सा लगता है. सब कुछ को कैसे समझेंगे? सब कुछ समझना सभी के बल-बूते का नहीं है - ऐसा सब मन में आता है. यहाँ सबसे पहला आश्वासन है - "अस्तित्व को मनुष्य समझ सकता है."दूसरे - अस्तित्व को मनुष्य "ही" समझ सकता है. मनुष्य के अलावा अस्तित्व में किसी को "समझने" की आवश्यकता नहीं है. तीसरे - मनुष्य ही मनुष्य को "समझा" सकता है. और कोई पत्थर, पेड़-पौधे, जानवर "समझाने" की जिम्मेदारी नहीं लेते. न वे "समझा" सकते हैं. ये सभी मनुष्य के लिए समझने की वस्तुएं हैं. समझाने वाली इकाई मनुष्य ही है. अस्तित्व में दो तरह की वस्तुएं हैं. पहली जिनको हम गिन सकते हैं - जैसे मिट्टी-पत्थर, पेड़-पौधे, जीव-जानवर, मनुष्य. ये सब "अनंत" हैं - मतलब जितना भी हम गिने, अस्तित्व में इनकी संख्या उससे ज्यादा हैं. दूसरे - खाली स्थली. जिसमें ये सभी इकाइयां स्थित हैं. अगर खाली स्थली नहीं है, तो इकाइयों को अलग-अलग पहचाना नहीं जा सकता. यह खाली-स्थाई हर जगह है, इसके आर-पार दीखता है, और यह इकाइयों में से पारगामी है. इकाइयां (जिनको हम गिन सकते हैं) - इस व्यापक वस्तु में डूबी-भीगी-घिरी हैं. व्यापक-वस्तु स्वयं ऊर्जा है. इकाई के "होने" के लिए जो ऊर्जा चाहिए - वह ऊर्जा यह व्यापक-वस्तु ही है. इकाइयां ऊर्जित हैं - इस ऊर्जा में संपृक्त होने के कारण. यह सह-अस्तित्व का मूल रूप है. इकाइयों और व्यापक-ऊर्जा का सह-अस्तित्व. यह कभी भी समाप्त नहीं होता. इकाइयों को ऊर्जा निरंतर मिलती ही रहती है. इसीलिये इकाइयों का अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता. परिवर्तन हो सकता है, गायब होना नहीं. इसीलिये सभी इकाइयों का "मूल धर्म" अस्तित्व है. "होना" हम सभी का, और सभी वस्तुओं का धर्म है. इकाई का "होना" नहीं मिट सकता! इकाइयां व्यापक के सह-अस्तित्व में होने से ऊर्जित हैं, यह स्पष्ट हुआ. लेकिन ऊर्जित हो कर करेंगी क्या? दो परमाणु-अंश ऊर्जित हैं. ये ऊर्जित हो कर करेंगे क्या? क्या ये मूलतः सघर्ष करेंगे? खींच-तान करेंगे? इस प्रस्ताव के अनुसार - इकाइयां परस्पर सह-अस्तित्व में व्यवस्था बनाने के लिए ही ऊर्जित हैं. दो परमाणु-अंश ऊर्जित हैं, और एक परमाणु के रूप में व्यवस्था बनाने के रूप में सहज रूप में प्रवृत्त है. इसी तरह दो परमाणु एक अणु बनाने के लिए प्रवृत्त हैं. इसी तरह अनुएं अणु-रचित रचनाएँ बनाने के लिए प्रर्वित्त हैं. इस तरह अस्तित्व में हरेक इकाई अपने आप में एक व्यवस्था है, और समग्र व्यवस्था में भागीदार है. इसके साथ साथ एक और भी बात है - अस्तित्व में एक दिशा है. अस्तित्व में "विकास" और "जाग्रति" की ओर दिशा है. कोई भी धरती समृद्ध होने की ओर ही अग्रसर रहती है. यह विकास की ओर उन्मुखता सह-अस्तित्व में प्रगटन विधि से है. इसी क्रम में अस्तित्व में चार अवस्थाएं क्रमिक रूप से प्रकट होती हैं. हर अवस्था अपने तरीके से सह-अस्तित्व में पूरकता और उपयोगिता को प्रमाणित करती है. हम स्वयं प्रकृति की इकाइयां हैं - इसलिए यह विकास की ओर उन्मुखता हममें भी है. जीवन में सुख की प्यास है. इसी वजह से मनुष्य हर क्षण सुख चाहता है. हमारा सुखी होना चाहना एक अस्तित्व-सहज, नियति-सहज बात है. हमारे सुखी होने के लिए हमें अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझना आवश्यक है. यदि ऐसे नहीं समझते तो हमारा अनचाही समस्याओं में ग्रसित हो जाना स्वाभाविक है. यदि हम नहीं समझते तो अस्तित्व में ह्रास की ओर गति शुरू हो जाना स्वाभाविक है। ह्रास की ओर गति इसलिए ताकि विकास और जाग्रति की ओर दिशा बनी रहे. मनुष्य के न समझने की वजह से ही हमारी धरती ह्रास की ओर गतिशील हो चुकी है. धरती पर जो आवेश पैदा किया गया है, उसका असर भुगतने के बाद ही विकास की ओर दिशा प्रशस्त होगी. धरती पर आवेश पैदा करना बंद करना आवश्यक है. तभी धरती समय रहते अपना सुधार कर सकती है. धरती की ह्रास की ओर गतिशीलता को नियति-सहज दिशा में लाने के लिए मनुष्य द्वारा पुरुषार्थ की ज़रुरत है. यह पुरुषार्थ है - "अस्तित्व को सह-अस्तित्व स्वरूप में समझना".

आदरणीय राकेश जी आपका सहृदय आभार....